Wednesday, March 7, 2018

त्रिपुरा, लेनिन और वामपंथ


त्रिपुरा, लेनिन और वामपंथ

होली के अगले दिन ही त्रिपुरा की धरती लाल से भगवा हो गयी | २५ सालों से रही वामपंथियों के अजय किले में दक्षिणपंथियों के इस जीत के राजनितिक गलियारे में कई मायने लगाये जा रहे हैं | जहाँ एक ओर दक्षिणपंथियों के हौसले बुलंद हैं और केरल में सिमट के रह गए वामपंथ के समाप्ति के कयास लगाये जा रहे हैं, वहीँ दूसरी ओर वामपंथ इसे जनता की गलती और पूंजीवाद और धन के बल पर प्राप्त किया गया विजय बता रहे हैं |

अब जबकि भाजपा समर्थित भीड़ द्वारा लेनिन की प्रतिमा तोड़ी जा रही है तो पूरी वामपंथ जमात इसकी घोर भर्त्सना कर रहा है और फासिस्टों द्वारा लोकतंत्र की हत्या बता रहा है, लेकिन अपना आत्म-अवलोकन नहीं कर रहा है की आखिर क्या कारण है की विश्व की सबसे बड़ी लोकतंत्र के लिए साम्यवाद व्यावहारिक नहीं रह गया है !


चाहे वो राजतन्त्र हो या लोकतंत्र सत्ता-परिवर्तन के बाद प्रतीकात्मक रूप में कुछ विध्वंस होता रहा है, चाहे वो कोई भी युग या समय क्यों ना हो | रूस और फ़्रांस में पुरे शाही परिवार की हत्या की गयी, इराक में सद्दाम हुसैन की प्रतिमा तोड़ दी गयी,  हमने अंग्रेजों द्वारा प्रचलित कई व्यवहारों को बदला (शर्म की बात है अभी भी बहुत कुछ अंग्रेजों के ज़माने की तरह ही हो रहा है), कांग्रेस की हार के बाद जनता पार्टी की सरकार और अन्य सरकारों ने योजनाओं का नाम नेहरु परिवार को छोड़कर अन्य नेताओं के नाम पर रखा, मायावती की सरकार हाथी की प्रतिमा बनाती है और समाजवादी दल की सरकार उन प्रतिमाओं को ढक देती है, ममता की सरकार सरकारी इमारत को लाल से नीले रंग में करवाती है..........साहब इन सबकों प्रतीकात्मक रूप में ही देखना चाहिए|

जिस लोकतंत्र के बल पर गाँधी के देश में लेनिन की प्रतिमा का आवरण बनाया गया, आज उसी लोकतंत्र के ही बल पर उस लेनिन की प्रतिमा को तोडा जा रहा है ..........तो फिर आश्चर्य क्यों और ये रुदन क्यों?

साहब यदि करना ही है तो आत्म-अवलोकन कीजिये की आखिर क्या कारण है की वामपंथ विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में अप्रासंगिक क्यों हो रहे हैं | वामपंथी राज्यों की आर्थिक प्रगति कम क्यों हैं ? साम्यवाद का मतलब कर्मठ चीटियों की मेहनत का फल तेलचट्टों को देने से नहीं है और लकीर के फकीर बने रहने से भी नहीं है | साम्यवाद का मतलब तो विकास के पंख बिना किसी भेद-भाव के हर नागरिकों तक सामान रूप से पहुचाने से है और कर्मठ व्यक्तियों को प्रोत्साहित करने से है ना की यूनियन के नाम पर मजदूरों को अकर्मण्य बनाना  और कल-कारखानों को बंद कराने  से है | आज यदि सार्वजानिक उपक्रमों की बुरी हालत है तो इनके जिम्मेदार यही राजनेता, यूनियन और भ्रष्ट प्रबंधन है | जिन अकर्मण्य लोगों के कारण आज ये सार्वजनिक उपकर्म या तो बंद हो रहे हैं या निजी हाथों में जा रहे हैं उन्ही की अगली पीढ़ी के लिए सरकारी क्षेत्र में नौकरियां रह नहीं जाएँगी |

चाहे वो कोई भी सरकार हो किसी विचार का एकदम ही विरोध करना ही लोकतंत्र के भावना के खिलाफ है| कायदे से संसद में एक अकेले सदस्य का विचार सुनना और समझना उतना ही जरुरी है जितना ही बाकी सदस्यों का .........तभी होगा असली लोकतंत्र| ऐसे में लेनिन की मूर्ति तोड़ने से अच्छा था की आप ऐसे काम करें की कल उस मूर्ति का पुनरुद्धार ना हो| जयप्रकाश नारायण और लोहिया के चेलों ने भले ही उनकी प्रतिमा बनवाई लेकिन उन्होंने ही समाजवाद की मूल भावना को खंडित किया और परिवारवाद की राजनीति की और भारतीय लोकतंत्र के काले पन्नों में दर्ज हुए |

भारत की प्रस्तावना में देश को ‘समाजवादी गणराज्य’ बनाने के लिए लक्ष्य रखा गया है और यही कारण है की हमने पूंजीवादी या साम्यवादी के बजाय ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ की बुनियाद रखी | हमारे लिए उद्योगों को आजादी भी देनी जरुरी थी और सरकारी नियंत्रण भी....... नीति-निर्माताओं को एक मिश्रण बनाना था जो देश के आर्थिक विकास के पहिये को गति प्रदान करें | शुरआत में समाजवादी लक्ष्य हासिल करने के लिए सार्वजानिक उपक्रमों की स्थापना की  गयी, सरकारी नियंत्रण अधिक था, लेकिन १९९० आते-२ समझ में आ गया था हमारे विकास की गति विश्व से कहीं पीछे है और फिर हमने उदारीकरण की राह पकड़ी | विगत २६ सालों में देश को आर्थिक प्रगति तो मिली लेकिन अब जिस तरीके से सबकुछ निजी हाथों को सौपने की तैयारी हो रही है ऐसे में हमें एकबार फिर अपनी प्रस्तावना के शब्द ‘समाजवादी गणराज्य’ को दुबारा पढना चाहिए और सरकार को आर्थिक नीतियों की रूप-रेखा तय करनी चाहिए |

ऐसे में वामपंथ का पूरी तरीके से विलोप होना भारतीय लोकतंत्र के लिए हितकारी नहीं होगा, लेकिन ये भी बात विचारणीय है की भारत का वामपंथ कोई लेनिन या मार्क्स से प्रेरित नहीं हो सकता, उसके मूल में बापू की पुस्तक ‘हिन्द स्वराज्य’, सरदार पटेल का ‘अंखंड भारत’ का लिए किया गया लौह-प्रयास, बाबा साहेब अंबेडकर की सोच, राजेंद्र प्रसाद व् लाल बहादुर शास्त्री का राजकीय खर्चों के प्रति दृष्टिकोण, क्रांतिकारी भगत सिंह की हिम्मत ( उन्होंने भरी अदालत में बयां दिया था ‘बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरुरत होती है’ | उनके द्वारा फेका गया बम प्रतीकात्मक ही था ) राममनोहर लोहिया का ‘समाजवाद’, श्यामाप्रसाद मुखर्जी का मुखर स्वर और जयप्रकाश नारायण का ‘तानाशाही सरकार के विरूद्ध जन-संघर्ष’ होना चाहिए |

चाहे वो दक्षिणपंथ हो या वामपंथ उसके मूल में यदि उपरोक्त उद्देश नहीं हैं तो वे आज नहीं तो कल भारतीय लोकतंत्र के लिए अप्रासंगिक हो जायेंगे|



(आलेख लेखक के निजी विचार हैं और किसी दल-विशेष के लिए प्रायोजित नहीं है)