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Thursday, February 22, 2018

निजीकरण-विनिवेश



निजीकरण-विनिवेश की रट लगाये सरकार
जरा पी.एस.यू, निर्माण के उद्देश्य को तो देखिये
निजीकरण ही नहीं है केवल एक उपाय
उनकी चोरी-बईमानी को भी तो देखिये
खरी-खोटी, गाली देने से पहले हमको
हमारा बेहाल हाल  तो देखिये
माफिया नेताओं के जाल से मुक्त करके
हमारा काम तो एकबार देखिये
आँखों से रंगीन चश्मा हटाके

एकबार जमीनी सच्चाई तो देखिये  

-पथिक (२१.०२.२०१८)

Monday, February 19, 2018

आजादी – सुनने से लेकर देखने तक

आजादी – सुनने से लेकर देखने तक
_____________________

बचपन से सुनते आये कि
भारत आजाद हुआ ४७ में
कोटि-२ है नमन उन शहीदों को
जिन्होंने प्राण गवाएं इस लड़ाई में|

कितना कठिन काम था ये
रियासतों को जोड़ना, सियासतों को तोडना
कोटि -२ है नमन सरदार पटेल लो
जिन्होंने मिलाया सबको एक भारत में |

पर देखते हैं आज आजादी का ये हाल तो
तरस है आता उन कुर्बानियों पर
जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र की लड़ाई में
तरस है आता जलते भारत पर |

चुनावें आती गई, सरकारें बनती गयीं
पर जनता का हाल मत पूछो इन नेताओं से
अपना पेट फुलाते रहे, जनता की कंगाली पर
तरस है आता लोकतंत्र-विधाता पर |

भ्रष्टाचार, नौकरशाही से बुरा हाल है
उसपर से मंहगाई भी बड़ी लाजबाब है
स्वास्थ्य, शिक्षा और बेटी की शादी
अभी भी जनता पर भारी है |

विश्वगुरु बन गया कॉल-सेंटर है
अपनी चीजों पर भी बाहर का पेटेंट है
इम्पोर्टेड को assemble कर यहाँ  
मेक इन इंडिया का परचम लहराया है |

घोटालों की मार से जनता परेशान है
देश के नौनिहाल भी भारी कर्जदार है
अरबों का कर्जा खाके पूंजीपति निहाल है 
फांसी को लगाने अन्नदाता मजबूर हैं |

आरोपों –प्रत्यारोपों से संसद में घमासान है
जमीर को बेच खाए मिडिया भी बईमान है
केसों के बोझ से न्यायालय भी बड़ी सुस्त है
जनता जाये भी तो जाये कहाँ, बड़ी परेशान है |

शिक्षा, सृजन से दूर छात्र नेतागिरी में है या बेरोजगार है
या अच्छी शिक्षा लेकर, लायक बन, देश से फरार है
सरकारी सेवाओं को कहे बुरा - भला पर    
सरकारी नौकरी के लिए मारा-मार  है |

की बुझा नहीं आग अभी कश्मीर का
नक्सल भी बन गया व्यापार है
चीन की चाल देख कर भी
चलाते  चीनी सामान हैं |

पर्यावरण का मत पूछो यहाँ
संस्कृति का भी बुरा हाल है
मातृभाषा को भूलने वाले याद रखो
क्या दोगे आप अपने नौनिहाल को |

निजीकरण की रट लगाये सरकार जरा
सरकार और प्रशासन को पारदर्शी तो कीजिये
माफिया, गुंडों, नेता के दबाब से मुक्त कीजिये
फिर psu का काम आप भी देखिये |

उम्मीद है बची नयी पीढ़ियों से
जो जलाये हैं मशाल नयी सोच की
भाषा, संस्कार व् पर्यावरण से जुड़ रहे
कर रहे खोज नए भारत के लिए |

करते है नमन सब श्रोताओं को
तालियों के भूखे हैं तालियाँ तो दीजिये
दीजिये आशीर्वाद हम कवियों को
की जिन्दा रहे जमीर हमारा कविता के लिए |

-पथिक (दिनांक १९.०२.२०१८)


Sunday, February 18, 2018

सरस्वती-वंदना

सरस्वती-वंदना
___________

हे माँ सरस्वती, हे माँ मैथिल
प्रथम प्रणाम करै छि हे |
कलियुगक अंधियार भगाउ
अहींक शरण आयल छि हे ||

हे माँ महामाया, हे ज्ञानमुद्रा,
मनक भ्रम के दूर करू |
दिय इजोरिया ज्ञान के,
मनक  अन्हरिया दूर करू ||

हे माँ महाविद्या, हे महाभागा,
अहि अज्ञानी के ज्ञान दिय |
छि हम अहींक भरोसे माँ
हमर कर्म के सौभाग्य दिय ||

हे माँ वैष्णवी, हे विशालाक्षी,
सतगुण पर जोर करू |
परा-अपरा के हाथ फेरु
सूतल कुंडली पर चोट करू||

हे माँ महापाशा, हे महाकारा,
हर बाधा स मुक्त करू |
दोष- विकार स  दूर राखु माँ
पथिकक भक्ति स्वीकार करू ||

हे माँ शारदे, हे माँ भारती
भारतक भाग्य उदय करू
सोनक चिरियां, विश्व-गुरु के
फेर से प्रतिष्ठित करू ||

हे माँ सरस्वती, हे माँ मैथिल
प्रथम प्रणाम करै छि हे |
कलियुगक अंधियार भगाउ

अहींक शरण आयल छि हे ||

दिनांक १८.०२.२०१८ 

Friday, April 22, 2016

धरोहड़

धरोहड़

हमने खेती करना छोड़ दिया है....की
अब देखा नहीं जाता बर्बाद फसलों का दर्द,
चिपटे पेटों की लपलपाती भूख, 
पसीनों भरे कन्धों का दर्द |

हमने पैसों के पेड़ लगाना शुरू कर दिए हैं...........
ये सोच के की ये पैसा हर चीज को खरीद लायेगा
हर वस्तु, सुविधा और यहाँ तक इन्सान भी
ख़रीदा जा सकता है पैसों से|

पर क्या तुम उस धुप को खरीद पाओगे सूरज से,
क्या ये हवा तुम्हारे पैसों के इशारे पर चलेगी ?
क्या पानी तुम ला पाओगे इन पैसों की गर्मी से
क्या मॉल में उग पायेगी सब्जियां और अनाज

बटोरते जा रहे सम्पति अपनी भावी पीढ़ियों के लिए
जो शायद नहीं जान पायेगी की क्या होता है
कुएं का मीठा पानी, क्या होता है मचान पर सोना,
क्या होता है धरती का आँचल?

क्या खोने की सूची काफी लम्बी है,
छोटी करने की जिम्मेदारी हमारी है
भूत और भविष्य का तो पता नहीं
वर्तमान की जिम्मेदारी हमारी है |



इमेज _ साभार गूगल 



Friday, January 8, 2016

शैतान की भीड़

शैतान की भीड़ 



क्या मालदा.......क्या पूर्णिया ........क्या दादरी
क्या २५०००० लोग और.......... क्या २५० लोग
क्या वामपंथ ...............क्या दक्षिणपंथ   
क्या मुस्लिम तुष्टिकरण और क्या हिन्दू अतिवाद

ये भीड़ पता नहीं कहाँ से आई है
इल्म से मरहूम इस भीड़ को
ना जाने कौन सी अफीम चटाई है जो
ये अपने ही घरों में आग लगा रहे हैं

बढ़ रही हैं ये आग की लपटें ........
गिर रही है लाशें इंसानों की .........
उठ रही है खुदाई धरती से ........
और तमाशबीन है कुर्सी ...........

बस चमक रही है निगाहें ........
कुर्सी पर बैठे इन गिध्धों की और
सियारों की और
भेड़ की खाल ओढ़े भेड़ियों की

ए खुदा ......तू सूरज के साथ में
अपने इल्म की रौशनी भेज यहाँ
अपने उन बन्दों के लिए
जो तेरे नाम पर शैतान बन बैठे हैं

कितना अच्छा होता इल्म भी हमें
चाँद-सूरज की रौशनी से मिलती
बारिश की बूंदों से मिलती और
फूलों की खुशबुओं से मिलती .......

ताकि कोई शैतान तेरे नाम पर
तेरे बन्दे को तेरे बन्दे के खिलाफ
तेरे उसूल के खिलाफ
इस वहशीपन को पैदा ना कर पाता

या तू हमें फिर जानवर बना दे
जो जिन्दा रहने की जंग में
एक –दुसरे को मारते रहें ....लेकिन
बंद कर इस वहशीपन को |



पथिक (०८.०१.२०१६)  

Thursday, January 7, 2016

बाल-मजदुर

बहुत पहले लिखी इस कविता को पन्ने पर देख बड़ी ही ख़ुशी हुई , साथ ही सोचा लगे हाथ पोस्ट भी कर देता हूँ |

बाल-मजदुर

_________

क्या वक़्त से पहले बड़े बनते बच्चों को देखा है 
तो शायद तुमने समझा होगा उस माँ का दर्द 
जो अपने बच्चों के बचपन से मरहूम हो गयी 
और उस बाप की मज़बूरी भी समझी होगी|

चाहे वो कोयले काटते बच्चे हो
या कूड़े बीनते और ढूंढते बच्चे 
या चाय की दुकान का छोटू हो 
या फिर जूते चमकता फेकू हो|

किसी को तरस है इनपर तो किसी को शक
कोई मजबूर कहता है तो कोई चोर कहता है 
लेकिन बचपन में ही बड़े हो गए  
इन बच्चों को कोई बच्चा नहीं कहता|

लोग कहते हैं फिक्र की कोई बात नहीं है,
ये कोई देश का भविष्य थोड़े ही हैं
बड़ा आश्चर्य है, इन नीति-निर्धारकों पर  
इन्हें देश का वर्तमान भी नहीं दिखता !

-पथिक (१४.११.२०१३)

Wednesday, January 6, 2016

आँगन

आँगन


कमरों की बढती आहटों के बीच
आँगन सिमटता और सिमटता जा रहा है|
वो आँगन जो कमरों को जोड़े रखता था
उन्हें एक परिवार का एहसास कराता था|

जहाँ हर कमरे के बच्चे साथ में खेलते थे
घर-परिवार के हर मुद्दे वहीँ तय होते थे
और चूल्हा मानों हर सुलगते मन को
खाने के पल में मीठा व् शांत कर देता था |

लोरियां, सोहर, समदाउन, मंगल सारे कोरस
उसी आँगन में गाये और सीखे जाते थे|  
अचार, पापड़, अदौड़ी, दनौड़ी, तिलौड़ी
बड़ी जन्नत से तैयार किये जाते थे   |

आँगन के बीच में एक तुलसी का पौधा था
जो माँ ही तो थी उस आँगन की और
उस आँगन के हर कमरे की और
उन कमरे के बच्चों की |

अब किसी को जरुरत नहीं है आँगन की,
बस जरुरत है ज्यादा कमरों की
ताकि किसी कमरें की privacy में
किसी और कमरें की दखलंदाजी ना हो |

अब या तो आँगन है नहीं और
आँगन है भी तो एक चूल्हा नहीं है
घर की जगह फ्लैट है और
आँगन की जगह सोसाइटी है |

सोसाइटी जो तबतक साथ है
जबतक आप सबल हैं |
उसकी दिखावे के कार्यक्रम में
हर फ्लैट का स्वागत है |

लेकिन कुल मिलकर वो आँगन नहीं है
जो छाँव देती थी हर कमरों को और
जोडके रखती तो सबको एक परिवार जैसा
तमाम मन-मुटाव और अभावों के बीच |

और तुलसी जो हर आँगन की शोभा होती थी
या तो है ही नहीं और है भी तो
बस किसी बालकनी के कोने में

किसी आँगन की याद में | 

-पथिक (०६.०१.२०१६) 

Sunday, December 13, 2015

विद्रोही

स्व. रमाशंकर यादव 'विद्रोही' को समर्पित, जिनका देहान्त विगत ०८.१२.२०१५ को हुआ |




विद्रोही


विद्रोही एक स्वर है जो
विद्रोह करेगा ही हर उस शख्स के लिए
जो अंतिम पायदाने पर है, या
जिसकी आवाज बस हलक में रह जाती है|

वो झिकझोरेगा हर उस शख़सियत को
जो सिर्फ चैन से सोना चाहता है
वो बुलंद करता रहेगा आवाज 
उन बहरों के कान में धमाके करने के लिए|

आज वो विद्रोही खामोश हो गया है सदा के लिए
पर विधाता...विद्रोही एक चेतना है....जो अजर है
अगर उसकी आवाज विद्रोही थी.........तो
उसकी ख़ामोशी भी बड़ी विद्रोही है |

और वो छोड़ गया है स्वर.........विद्रोह का
लेखनी जो उतार गया है नसों-२ में
और चिंगारी जो बढती ही जा रही है
झरिया के खानों की तरह अन्दर ही अन्दर|
- पथिक (१३.१२.२०१५) 

Tuesday, August 25, 2015

रोटी और शांति

रोटी और शांति

एक दिन तो आएगा,
जब किसान बोयेगा सिर्फ अपने लिए
और सिर्फ अपने बच्चों के लिए|...

और उस दिन
हर कोई किसान होगा,
छोडकर दलाली, ठेकेदारी, उपदेश
क्योंकि अब सबको चाहिए रोटी,
जो उन्हें खुद बोनी है अपने पसीने से
और उस दिन होगी शांति
और बंदूके हो जायेगी खामोश
दुरी नहीं रहेगी इंसानों में,
क्योंकि तब सबका पसीना बहेगा
खेतों में और सभी को पता होगा
दर्द दुसरे कन्धों का
और मतलब चूल्हा बंद होने का |
पर मुझे डर है की
इससे पहले होगा एक रक्तपात .....
सत्ता के लिए नहीं, रोटी के लिए
और रोटी उगाने वालों से
रोटी छिना जायेगा बन्दुक के दम पर|
धीरे-२ रोटी बनाने वाले बन्दुक पकड़ेंगे
और भूलते जायेंगे रोटी बनाना
परिणाम होगा सिर्फ रक्तपात सिर्फ रक्तपात
इतना की इन्सान और जानवर में भेद मिट जायेगा
और तब होगी शांति हमेशा के लिए |
पर क्या भगवान तब तक इन्सान बनाता रहेगा ?
 
 
- पथिक (२४.०८.२०१५)

Thursday, August 20, 2015

मुहब्बत की सच्ची इबारत

मुहब्बत तो मुहब्बत ही होती है लेकिन
फिर भी फर्क है जमीं - आसमां का ...

एक बादशाह के मुहब्बत में
और एक आदमी के मुहब्बत में |

 
भले ही एक सातवाँ अजूबा हो,
पर दूसरा तो मिसाल है कि
आसमां को जमीं पर लाया जा सकता है,
बशर्ते लाने वाला होना चाहिए |

 
मुमताज को भी जलन होगी ,
फाल्गुनी बनने की,
जिसकी याद के आसुओं से
दशरथ ने पहाड़ तक को काट दिया |

 
ये इबारत है इन्सान की फौलादी इक्षाशक्ति की
जिसने पहाड़ को झुकना सिखा दिया
ये इबारत है मुहब्बत की जो कहीं बेहतर है
लैला-मजनूँ और हीर -रांझो की कहानियों से |
 
- पथिक (१९.०८.२०१५)

Sunday, July 26, 2015

सत्ता का खेल - २६.०७.२०१५

 
 
 

सत्ता का खेल  

 
जख्मों को हरा रहने दो,
थोड़ा नासूर और बनने दो
सियासत बनी रहे बदस्तूर,
बस इसका ख्याल रहने दो
...
इस पार हो या सीमा पार,
तल्ख़ मौहाल को रहने दो
रोटी छिनकर अभागों से
बुझती राखों में आग भरने दो
 
हर तरफ रंग-ए-मजहब
का शोर बढ़ते रहने दो
इन फरेबों की खातिर
लाशों को गिरते रहने दो
 
आवाजें आएंगी ठहरने की
इस पार भी उस पार भी
उसे अनसुना कर
खेल को बदस्तूर चलने दो

Tuesday, July 7, 2015

सरकार

सरकार

 
हर बार आती एक सरकार,
ना तेरी ना मेरी सरकार,
सरकार तो होती है बस,
सरकार की सरकार |
 
हर दल की है सरकार,
हर टोपी की है सरकार,
बस गुमनाम है उसमे,
हमारे सरोकार की सरकार |
 
हर शोर की सरकार,
हर कौम की सरकार,
बस खौफ में है,
आम आवाज सरकार |

Monday, May 18, 2015

"बेबस"

इस हफ्ते चार मित्रों का प्रेम-विवाह यथासंभव कोशिश के बाबजूद टूटता देखकर मूड ख़राब हो गया है| हम लोग जरुर उस समाज का निर्माण कर पाएंगे जहाँ............हम अपने बच्चों की ख़ुशी महज परंपरा और समाज के नाम पर बलि नहीं होने देंगे|  जो कष्ट हमारे इन मित्रों को हो रहा है.............वो अगली पीढ़ी को नहीं होने देंगे|
दिलजले दोस्तों के दर्द के नाम चंद पंक्तियाँ :-

"बेबस"




क्या फोड़ दूँ इन नयनों को ,
जिसने ये नामुमकिन सपने देखें ,
या फिर कोसूं अपने मोह को ,
जो भूलता नहीं अपने को |


या आग लगा दूँ इस दुनिया को 
इस समाज को, इस मज़बूरी को 
या तोड़ दूँ सब माया-मोह के बंधन,
एक नए माया-मोह के लिए |


शर्म आती है अपनी कायरता पर,
और अपनी भगोड़ेपन पर | 
और शर्म आती है अपनी औकात पर 
जो अपने औकात से बढ़के बात करता था|


हाय विधाता मेरी किस्मत क्या लिखी 
मैंने रुक्मणी मांगी थी, राधा नहीं |
किसी का हाथ अपने हाथ माँगा था , 
पर अपनों का हाथ भी सर पर माँगा था |


- सत्येन्द्र कुमार मिश्र "पथिक" (१८.०५.२०१५)


इमेज के लिए साभार गूगल

Monday, April 20, 2015

अंशु सचदेवा को श्रधांजलि और  तमाम जुगनुओं को समर्पित कुछ पंक्तिया


जुगनू



अमावस्या से लडती एक जुगनू,
जो उम्मीद है हर कोने की,
कि वो कोना भी रौशन होगा ,
भले ही पल दो पल के लिए |

आज वो जुगनू हार गयी है,
अपनी ही अमावस्या से ,
और भूल चुकी अपने अन्दर के जुगनू  को
और उन तमाम कोनो के विश्वास को |

या फिर मान बैठी है कि
उसकी ये जुगनू की छोटी  रौशनी ,
नाकाफी है अपनी अमावस्या के लिए,
और हर कोने तक पहुचने के लिए |

इसलिए गयी है सूरज को लाने,
या फिर पूनम की चंदा को,
ताकि फिर किसी जुगनू को,
हारना ना पड़े अपनी अमावस्या से |

लेकिन वो जुगनू भूल गयी कि ,
सूरज भी कभी एक चिंगारी ही रहा होगा,
और पूनम भी कभी अमावस्या ही रही होगी ,
लेकिन जुगनू, जुगनी ही रही होगी |

एक आशा की जुगनू , 
जो याद दिलाती है दूसरी जुगनू को,
कि तुम्हे चमकना ही होगा तब तक,
जब तक भोर ना होगी............भोर ना होगी |   

                                             - सत्येन्द्र कुमार मिश्र 'पथिक' 







Friday, September 12, 2014

याद आएँगी तुम्हारी पंक्तियाँ

 
 
मुंशी प्रेमचंद जी के ही तरह गजानन माधव "मुक्तिबोध" को भी शोहरत मरणोपरांत ही मिली. वामपंथी विचारधारा के इस कवि की लेखनी से नयी कविताओं की एक अलग से ही धारा चल पड़ी थी .............जो दुर्भाग्य से असमय ही बंद हो गयी. कोटि-२ भावभीनी श्रधांजलि
गजानन माधव "मुक्तिबोध" की याद में  मेरे भाव कुछ इसतरह से निकले :-  

 

याद आएँगी तुम्हारी पंक्तियाँ
 
याद आएँगी तुम्हारी पंक्तियाँ
जिंदगी की कठोरता व् संघर्ष को बयां करती पंक्तियाँ
अँधेरे में अपने अंतर्मन को टटोलती पंक्तियाँ
पूंजीवाद के बैचन चीलों से लडती पंक्तियाँ
तुम्हारी ही लेखनी थी जो कह पाई
की चाँद का मुंह टेढ़ा है
लेकिन क्यों तुम चुप हो गए
कल था या आज हो ...
जरुरत थी तुम्हारे थापों की
जो हमें लड़ना सिखाती
उठाना सिखाती और फिर
सिखाती टटोलना अपने ही अंतर्मन को
सृजनशील स्वर में मरण -गीत गाने वाले कवि
तुम मर नहीं सकते तुम रहोगे जिन्दा
हमेशा हमेशा और हमेशा ...............