बहुत पहले लिखी इस कविता को पन्ने पर देख बड़ी ही ख़ुशी हुई , साथ ही सोचा लगे हाथ पोस्ट भी कर देता हूँ |
बाल-मजदुर
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क्या वक़्त से पहले बड़े बनते बच्चों को देखा है
तो शायद तुमने समझा होगा उस माँ का दर्द
जो अपने बच्चों के बचपन से मरहूम हो गयी
और उस बाप की मज़बूरी भी समझी होगी|
चाहे वो कोयले काटते बच्चे हो
या कूड़े बीनते और ढूंढते बच्चे
या चाय की दुकान का छोटू हो
या फिर जूते चमकता फेकू हो|
किसी को तरस है इनपर तो किसी को शक
कोई मजबूर कहता है तो कोई चोर कहता है
लेकिन बचपन में ही बड़े हो गए
इन बच्चों को कोई बच्चा नहीं कहता|
लोग कहते हैं फिक्र की कोई बात नहीं है,
ये कोई देश का भविष्य थोड़े ही हैं
बड़ा आश्चर्य है, इन नीति-निर्धारकों पर
इन्हें देश का वर्तमान भी नहीं दिखता !
-पथिक (१४.११.२०१३)
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