पिता
पिता शब्द से वो ऊँगली याद आती है,
जिसे पकड़कर दुनिया को हमने जाना,
फिर वो डांट-फटकार आती है ,
जिसने हमें इन्सान बनाया |
फिर वो बरगद की छांव दिखती है,
जो धूप-बारिश से हमें बचाता रहता है,
फिर वो इन्सान दिखता है ,
जो ऊपर से पर्वत और अन्दर से समंदर है|
और अब,
पिता शब्द से महसूस होता है
अनन्त ब्रह्माण्ड,.......जो हर जगह हर पल है
लेकिन दृश्य से परे है|
जहाँ मेरी आवाज चीखती है,
आजाओ............मुझे नहीं बनना बड़ा,
मुझे जरुरत है फिर से उँगलियों की,
लेकिन निःशब्द है ब्रहामंड..............
(२०.०६.२०१६)