Friday, January 1, 2010

चिंतन : नये साल पर

प्रस्तुत पंक्तियाँ दिनांक ०२/०२/२००१ को नववर्ष के अवसर पर उठे चिंतन पर मेरी भावनाओं को व्यक्त कर रही है| आशा है आप सब भी मेरे विचार से सहमत होंगें |


चिंतन : नये साल पर 

ठीक बारह बजे,
सोचने को मैं मजबूर हुआ |
कहने को अलविदा गत-वर्ष,
और स्वागतम नव-वर्ष |


हर बार कुछ बंधती आशाएँ नये साल से,
सोचते हैं, इसबार सब अच्छा ही  होगा |
गत वर्ष की कठोर यादों को
भूल जाते नव-वर्ष के कोमल स्वप्नों मैं |


फिर वह नव-वर्ष भी खो जाता,
गत वर्ष बन अतीत के पन्नों मैं |
और, एक नव वर्षा पुनः आता,
वाही आशाएँ, वही सपने लेकर |


हम हर बार सपने बुनते
और हर बार उसे टूटते देखते |
शायद सच यही है की
सपने अपने नहीं होते |


पर, क्या हम गलत हैं ?                            
आशा का दीपक ही,
हमें जीवन जीने  देता |
बगैर इसके कैसे जी सकते हम ?

हाँ, हम सही हैं |
पर, गलत भी हैं,
हम सपने बुनते,
उसे संभव नहीं करते |

इतिहास तो लिखते रहे,
पर सबक लिया क्या उससे |
भविष्य और अतीत मैं खोकर
बर्बाद करते वर्तमान को |

हमें आगे तो बढ़ना चाहिए,                   
पर, सावधान भी होना चाहिए
क्या हमारी राहें सही है ?
क्या हम भटके तो नहीं हैं ?

सोचकर दर्द हुआ दिल को,
काश ! शुरू से जी सतर्क रहते,
तो ऐसी स्थिति नहीं आती,
और हम नहीं पछताते |

अभी भी क्या कुछ बिगड़ा है |
बहुत कुछ करना है अभी |
बहुत कुछ सीखना है हमें |
व मंजिल को पाके रहना है |

सामना करना है पर्वतों से,                       
निरंतर विशाल होते बादलों से,
घने-से-घने कोहरों से,
निराशा के अथाह समंदर से |

वज्रपात करेंगे पर्वतों पर,
पवन बन बादलों को हटाएगें ,
सूर्य बन कोहरों को भगा देंगे,
धैर्य से पर करेंगे निराशा को |

पूर्वजों की आन बनाये रखना है |                          
सर हिमालय का उठाये रखना है |
गंगाजल को पवित्र बनाए रखना है |
भारत भूमि को अखंड बनाए रखना है |

देखो ! कह रहा है यह नया साल,
सुनों ! समय की यह आवाज,
आहा ! बसंत  की पलके खुल रही है |
समेटो | ज्ञान का कपट खुल रहा है |





समाप्त


नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें