प्रस्तुत शीर्षक कविता "गाय" उन व्यक्तियों को लेके लिखी गई है जो भारतीय लोकत्रंत व समाज के काले दर्द से रूबरू है और इस कदर हिम्मत हार चुके है कि वो अब कोई भी प्रयास इस दर्द से छुटकारा पाने के लिए नहीं कर रहें हैं | यह कविता २०/०४/२००३ को लिखी गयी थी |
गाय
गाय
वह गाय
बेबस गाय
गर्दन झटक रही है बार-बार
अपने पाँव पर बैठी
जालिम मक्खियों ko
भगाने के लिए
जो उसके जख्म को
करती जा रही है गहरा और गहरा
गाय की कोशिश पर
इठलाती मक्खियाँ
फिर वहां पर बैठ जाती
क्योंकि उन्हें पता है कि
यह सीधी गाय बेबस है
कल भी बेबस थी
आज भी बेबस है
और कल भी बेबस रहेगी
वह दर्द से तडपती गाय!
पर खामोश गाय
कब से उस जख्म को
लेकर बैठी है
और आज वह उस पीड़ा कि
इसतरह आदी हो चुकी है कि
हज़ार मखियों और भी आ जाए
पर वह अपने पाँव नहीं हिलाएगी
गर्दन भी नहीं झटकेगी अब
क्योंकि उस कायर गाय ने
उस कायर गाय ने
इसे भाग्य का लेखा जो मान लिया है |
समाप्त
समाप्त
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