Friday, January 8, 2016

शैतान की भीड़

शैतान की भीड़ 



क्या मालदा.......क्या पूर्णिया ........क्या दादरी
क्या २५०००० लोग और.......... क्या २५० लोग
क्या वामपंथ ...............क्या दक्षिणपंथ   
क्या मुस्लिम तुष्टिकरण और क्या हिन्दू अतिवाद

ये भीड़ पता नहीं कहाँ से आई है
इल्म से मरहूम इस भीड़ को
ना जाने कौन सी अफीम चटाई है जो
ये अपने ही घरों में आग लगा रहे हैं

बढ़ रही हैं ये आग की लपटें ........
गिर रही है लाशें इंसानों की .........
उठ रही है खुदाई धरती से ........
और तमाशबीन है कुर्सी ...........

बस चमक रही है निगाहें ........
कुर्सी पर बैठे इन गिध्धों की और
सियारों की और
भेड़ की खाल ओढ़े भेड़ियों की

ए खुदा ......तू सूरज के साथ में
अपने इल्म की रौशनी भेज यहाँ
अपने उन बन्दों के लिए
जो तेरे नाम पर शैतान बन बैठे हैं

कितना अच्छा होता इल्म भी हमें
चाँद-सूरज की रौशनी से मिलती
बारिश की बूंदों से मिलती और
फूलों की खुशबुओं से मिलती .......

ताकि कोई शैतान तेरे नाम पर
तेरे बन्दे को तेरे बन्दे के खिलाफ
तेरे उसूल के खिलाफ
इस वहशीपन को पैदा ना कर पाता

या तू हमें फिर जानवर बना दे
जो जिन्दा रहने की जंग में
एक –दुसरे को मारते रहें ....लेकिन
बंद कर इस वहशीपन को |



पथिक (०८.०१.२०१६)  

Thursday, January 7, 2016

बाल-मजदुर

बहुत पहले लिखी इस कविता को पन्ने पर देख बड़ी ही ख़ुशी हुई , साथ ही सोचा लगे हाथ पोस्ट भी कर देता हूँ |

बाल-मजदुर

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क्या वक़्त से पहले बड़े बनते बच्चों को देखा है 
तो शायद तुमने समझा होगा उस माँ का दर्द 
जो अपने बच्चों के बचपन से मरहूम हो गयी 
और उस बाप की मज़बूरी भी समझी होगी|

चाहे वो कोयले काटते बच्चे हो
या कूड़े बीनते और ढूंढते बच्चे 
या चाय की दुकान का छोटू हो 
या फिर जूते चमकता फेकू हो|

किसी को तरस है इनपर तो किसी को शक
कोई मजबूर कहता है तो कोई चोर कहता है 
लेकिन बचपन में ही बड़े हो गए  
इन बच्चों को कोई बच्चा नहीं कहता|

लोग कहते हैं फिक्र की कोई बात नहीं है,
ये कोई देश का भविष्य थोड़े ही हैं
बड़ा आश्चर्य है, इन नीति-निर्धारकों पर  
इन्हें देश का वर्तमान भी नहीं दिखता !

-पथिक (१४.११.२०१३)

Wednesday, January 6, 2016

आँगन

आँगन


कमरों की बढती आहटों के बीच
आँगन सिमटता और सिमटता जा रहा है|
वो आँगन जो कमरों को जोड़े रखता था
उन्हें एक परिवार का एहसास कराता था|

जहाँ हर कमरे के बच्चे साथ में खेलते थे
घर-परिवार के हर मुद्दे वहीँ तय होते थे
और चूल्हा मानों हर सुलगते मन को
खाने के पल में मीठा व् शांत कर देता था |

लोरियां, सोहर, समदाउन, मंगल सारे कोरस
उसी आँगन में गाये और सीखे जाते थे|  
अचार, पापड़, अदौड़ी, दनौड़ी, तिलौड़ी
बड़ी जन्नत से तैयार किये जाते थे   |

आँगन के बीच में एक तुलसी का पौधा था
जो माँ ही तो थी उस आँगन की और
उस आँगन के हर कमरे की और
उन कमरे के बच्चों की |

अब किसी को जरुरत नहीं है आँगन की,
बस जरुरत है ज्यादा कमरों की
ताकि किसी कमरें की privacy में
किसी और कमरें की दखलंदाजी ना हो |

अब या तो आँगन है नहीं और
आँगन है भी तो एक चूल्हा नहीं है
घर की जगह फ्लैट है और
आँगन की जगह सोसाइटी है |

सोसाइटी जो तबतक साथ है
जबतक आप सबल हैं |
उसकी दिखावे के कार्यक्रम में
हर फ्लैट का स्वागत है |

लेकिन कुल मिलकर वो आँगन नहीं है
जो छाँव देती थी हर कमरों को और
जोडके रखती तो सबको एक परिवार जैसा
तमाम मन-मुटाव और अभावों के बीच |

और तुलसी जो हर आँगन की शोभा होती थी
या तो है ही नहीं और है भी तो
बस किसी बालकनी के कोने में

किसी आँगन की याद में | 

-पथिक (०६.०१.२०१६)