Friday, December 4, 2009

प्रजातान्त्रिक देश में एक क्रिकेट मैच

प्रजातान्त्रिक देश में एक क्रिकेट मैच

एक बार,
एक प्रजातान्त्रिक देश में,
एक अनोखे क्रिकेट मैच का  किया गया आयोजन,
एक अदभुत अवसर पर,
स्वर्ण जयंती के आलम में,
लोकतंत्र के मैदान में !
अम्पायर थे , महामहिम !
पर, उठती ऊँगली वजीर की !
रेफरी थे अदालतें !
पर आँखों पर बंधी थी पट्टी !
स्कोरर थे इमानदार,
पर जेब से झांक रही थी नोटों की गड्डी !
दल थे - दो ,
सत्ता और विपक्ष,
सत्ताधारी गठबंधन,
जिसमें पता नहीं कितनी गांठे थी ?
और विपक्षी,
जिसमें पता नहीं कितने पक्ष थे!
सत्तापक्ष में थे खिलाडी बारह ,
आखिर कौन हटे !
परेशान कप्तान स्वयं हटे |
विपक्ष में खिलाड़ी थे ही कहाँ,
सभी स्वयं को कप्तान कहते!
आखिर उछाला गया सिक्का |
पर, यह क्या !
यह तो खड़ी रही !
आखिर फैसला हुआ अदभुत !
दोनों साथ-साथ खेले |
एक छोर, सत्तापक्ष का
व दूसरा, विपक्ष का |
इनाम थी कुर्सी |
जिसे पाने के लिए,
रन नहीं, खून बहाए गए |
इस तरह काफी समय से,
चल रहा है यह मैच !
पर स्कोर रहा हमेशा - जीरो |
हाँ, सच यही लोकतंत्र का,
सभी का एक ही उद्देश्य,
सेवा के बहाने कुर्सी पाऊं  |
बेचारी जनता की उम्मीदें,
इस तरह हर बार टूटती |
पता नहीं, कब तक चलेगा ये,
क्या कभी समाप्त होगा यह मैच |

समाप्त

Friday, November 27, 2009

Tribute to 26/11 Victim


Tribute to 26/11 Victim



I can't forget that night of last year. I was coming to my friend's room at laxmi nagar and saw all friends on Internet to saw that mishap of that night. We didn't sleep that night and next two days was not comfortable for us. This was the situation of  delhi. How could i guess the situation of Mumbai but we knew that this was too much. If i wants to form the expression of those nights into words, it will form into a book.





After one year of that accident while writing i hearing the broadcast of BBC London in Hindi and weeping to hear the statement of people belonging to this accident.

Tonight what i am think about that day i.e. that accident was the core result of  inactive police, blaming game of politics, slept intelligence Agency and undifferent people of India who are educated but selfish, peacefull but cowardly, thinking but not for society, religious but immoral. Only these people are responsible whether they are belongs to corporate classes, whether to politician, whether to government officers or whether to citizen of India.

The terrorists accident in India is not uncommon in India. We are victim of 1993 Mumbai blast. Before 26/11 incident the capital of India, Delhi had already shoked several times. North-eastern states and J&K situation is not very good. Then What is the solution ? Are any hope ?

Today in parliament after giving tributes to victims to this accident when Mr. L. K. Advani arose the question about the non-helping hands of government to the victims to this accident the reaction of Mr. Pranab Mukherjee is not very good ? What is the wrong while arising this question. Why are government's helping hands not rearly go for help in time of need. Why is the process of government so long even in these sensitive issues. Why are Congress government's unable to hang the terrorist of Parliament-Attack after a such long time. why?


It is the time when we must think that no , now no body comes for our problems except us. Are you want real democracy then my dear friends please come forward took participate in this democratic process, not by only casting vote but by electing election, by creating pressure group, by constantly watching your representatives and more over you first forget that you have a long life. Why you wishing a 100 years life if you are not willing to change your attitude. Offcourse we will all die one day but it totally depends on us that how we lives.




It is the time of awaking because now we, our family, our society, our culture, our history, our nation, our world and our religion i.e. humanity all are in danger. Not only terrorism but our thrust of money, our selfness, our crulity for helpless people, our dismorality are the more responsible for this situation. So if you want to give the real tribute to those person then my dear friends change your attitude and live with this slogan "Dare to die to change".




Tuesday, November 24, 2009

आओ पूर्ण करें दायित्व अपना

दिनांक २२/१२/२००१ 
आओ पूर्ण करें दायित्व अपना 





बलिदान की मिट्टी में,                              
पवित्र कर्म की शक्ति से,
जन्म दिया था एक पौध को |

उस संजीवनी के प्रकाश से,
दुःख का कोहरा हटने की,
उम्मीदें जागने लगी |

मानो अमावस खत्म हो गई हो,
और पूनम का चाँद सर पर हो,
जिसे अनंत निगाहें देख रही है |

पर उन्हें क्या पता था !
की राहू भी तैयार है,
सूर्य-ग्रहण हेतु |


हमें मिला था, एक दायित्व,
उस पौध को पेड़ बनाने का,
और उन्नत फलों को बाँटने का |

हमें उसमे श्रम का खाद डालकर,
और ज्ञान की सिंचाई से,
शांति का एक वट-वृक्ष बनाना था |

वे बाड लगाकर सो गए,
और कुत्तों के हाथों सौपं गए |
काश! पहचान पाते बिल्लिओं को |

हिंसा की आंधी से ,
डरे उस पेड़ को,
अपनों ने काटना शुरू किया |

भेद-भाव की विशाल झाड़ी,

धार्मिक-सदभावना के पेड़ को,
चारों तरफ से घेरने लगे |

अरे कृषक !
उर्वरक की सफेदी में,
भूल गए गोबर को |

अरे चरवाहे !
दो पलों के स्वार्थ में आकर,
नाश कर रहे इस चारागाह को |

अरे माली !
पुष्पों के इत्र के लिए,
वीरान कर रहे इस बगीचे को |


अरे कालिदास !
दल वही कट रहे,
जिस पर बैठे आप |

आओ , हम सब हों एकजुट,
मिलकर सोंचे और विचारें,
डाले नजर मंजिलों पर |

करें हम वो सभी कार्य,
जो हमने नहीं किया,
व जो आगे करना है |

देखों हमसे पूछ रहा लालकिला,
हिंद की लहरों ने है याद किया,

और बढ़ा रहा उत्साह हिमालय |

आओ, उखाड़ फेंकें इन झाड़ों को,
और सुमनों की कतार लगायें ,
और एकता की बाड लगायें  |

आओ सुरक्षित कल के लिए,
अतीत के प्रकाश से,
वर्तमान पर नजर डालें |

आओ साकार करें हम,
स्वप्न अभिनव भारत का,
आओ पूर्ण करें दायित्व अपना |





||  समाप्त  ||

पुराने पुल कि दास्ताँ

प्रस्तुत शीर्षक कविता "पुराने पुल कि दास्ताँ " वास्तव में एक दर्द है लोहे वाले उस पुराने पुल का जो एक शताब्दी से ऊपर से दिल्ली के उतार-चढाव का गवाह है | सलीमगढ़ और पुस्ते के बीच बने उस पुल को जब भी मैं निहारता हूँ न जाने मेरी आँखे क्यों भर जाती है | शायद इस कविता को पढने के बाद आप भी उस दर्द को महसूस कर पायें, यदि ऐसा हो पाया तो इसे मैं अपना सौभाग्य समझूँगा |

दिनांक १०/१२/२००१ 
2003


पुराने पुल कि दास्ताँ

१८८०


जब जन्म हुआ था मेरा,
बड़ा दुखी था मैं !
दुखी हों भी तो क्यों ना हूँ ?

सम्पति अपना, नाम किसी का |
देश है अपना राज किसी का |




हुआ था विकल बड़ा मैं ,
आत्महत्या चाहता था मैं,
ऐसा चाहूँ भी तो क्यों नो चाहूँ ?

स्वर्ण-खग को दीन बना दिया |
व्यापर के पीछे बंदी बना लिया |

'५७' कि क्रांति का अभिलाषी था मैं,
गर्जना सिंह कि चाहता था मैं,
ऐसा हो भी तो क्यों ना हो ?

जब पशु विरोध करते दासता का,
तो मानव कैसे सहे गुलामी |


 

आखिर बना आजाद हिंद फौज
'४२' कि क्रांति ने हुंकार भरी
खुश हो भी तो क्यों ना हूँ !




२०० साल बाद टूटी जंजीरें,
सपना साकार हुआ अपना |

स्वप्न टुटा शीघ्र ही ,
पाक-भूमि बना स्वार्थ से,
आश्चर्य हो भी तो क्यों ना हो ?

युद्ध जीतकर भी हारे,
बापू को गोली से मारे |




दसक रोने में बिताया,
भावी कल्पना से कापां !
डर हो भी तो क्यों ना हो ?

प्रभात-सूर्य को राहू ने ग्रसा
अमृत-घट में विषधर पाया |

आगे भी कुछ ऐसा ही देखा
विश्वास-घाती मित्रों को भी देखा |
कलपुं तो क्यों ना कलपुं ?




शांति-जननी को आग में पाया
टूटते अपने आश्तीत्व को पाया |

आया वर्तमान में एक आशा से
अमावस में पूनम कि आशा से
आशा रखूं भी तो क्यों ना रखूं ?

जीवन के लिए सांस चाहिए
साथ में आश भी तो चाहिए |

पाश्चात्य में रमते लोगों से
सेवा में मेवा खाते लोगों से
कहूँ भी तो क्यों ना कहूँ ?




बताऊँ पहचान में उनकी
याद दिलाऊँ बीते युगों की |

माना की मैं एक पुल पुराना हूँ |
कबाड़ी में फेंका जाने वाला हूँ |
पर बोलूं तो क्यों ना बोलूं ?

क्योंकि मैं केवल पुल ही नहीं,
बल्कि शताब्दी की दास्ताँ हूँ |

ये यमुना के बहते पानी ,
गिरते आंसू  हैं मेरे
जिसे गिराऊँ तो क्यों न गिराऊँ ?




ये श्रधांजलि है मेरी उनके प्रति
जिन्होंने प्राण दिए देश के प्रति |

||समाप्त ||

प्रेरणा-गीत

दिनांक ०५/१२/2001

प्रेरणा-गीत


 
बनो अटल आदित्य नभ के,
जो सदा अडिग रहता,
अपना स्वरुप स्थिर रखता,
कभी न टलता कर्म से |
 




मत जाओ चाँद पर ,
वह है ही छलिया !
अपने रूप बदलता रोज,
कभी पूनम, कभी अमावस |




दाग मत लो शशि कि तरह,
प्रखर बनो भास्कर कि तरह,
वो भगाता भ्रम कुहासे का,
औकात दिखाता तारों को |




अरे, चांदनी है चोरी कि,
चुराया गया है सूर्य से |
चोर कि दाढ़ी में तिनका,
साबित करता हँसते सितारे |




रास्ते दिखाता प्रकृति तुम्हें,
प्रेरणा-गीत सुनाता तुम्हें,
अरे होगे सफल तुम तो,
बस बढ़ते ही जाओ |




बढ़ते ही रहो सरिता-समान,
खुद ही तलाशों पथ अपना,
पर-सुख के लिए बहो सदा,
और फिर मिलो सागर से |




पुनः, एक अनुभव लेकर,
बनो नभ के बादल,
वर्षा बन धरती पर आओ,
मिट्टी कि कसक बुझाओ |




उद्देश्य तुम्हारा है यही,
सही पथ है यही,
अपने को खोकर,
दूसरों में बस जाओ |




||समाप्त ||


संध्या

मेरी पहली कविता की सराहना के लिए आप सब का धन्यवाद | जैसा की मैंने पहले कहा था की इन टूटी-फूटी पंक्तियों को मैं कविता नहीं कहना चाहूँगा क्योंकि कविता मैं भाव-पक्ष के साथ-साथ कला-पक्ष का भी होना नितांत आवश्यक है, जिसकी काफी कमी आप महसूस करेंगे | यही वजह है की इन्हें मैंने कहीं प्रकाशित नहीं करवाया | इसे इस ब्लॉग पर डालने का मेरा मूल उद्देश्य यही है की मेरे साथी मेरे सभी पक्षों के बारे में अवगत हो सके |

तो आज इसी कड़ी में प्रस्तुत है आप सब के समक्ष शीर्षक कविता "संध्या" | जो दिनांक २८/११/२००१ को संध्या के समय मेरी भावनाओं का अक्षर रूप है |

संध्या





यमुना के आगोश में सूर्य,
शीतल हो खिल उठा |
संगीत छोड़ते खग,
संध्या के मंडप में|






चकोर को मिली चाँदनी, 
साथ में बारात सितारों की| 
व विदाय लेता रवि उनसे, 
संध्या की डोली में |




बसेरे पे लौटते दम्पति खग,
घर को लौटते हम,
शांत होता कोलाहल,
संध्या की बेला में |







मिलन का सन्देश लाती संध्या, 
ताज को चार चाँद लगाती संध्या, 
चिंता के कशमकश से मुक्त संध्या, 
प्रकृति का अनुपम क्षण संध्या |





||  समाप्त  ||





Saturday, November 14, 2009

आग ,आटा और लोहा ;- आवेश जी


मैंने  एक बहुत ही बढियां शीर्षक लेख " आग ,आटा और लोहा" ,www.katrane.blogspot.com पर पढ़ा जो की आवेश जी द्वारा लिखा गया है | में समझता हूँ की हर किसी को यह आलेख जरुर पढना चाहिए और अपने निर्णय लेते वक़्त  बापू के उस  अंतिम व्यक्ति के बारे में जरुर सोचना चाहिए जिसके बारे में  हमारी NCERT की Text  Book में  पहले पेज पर ज़िक्र होता है | मैंने उनके  इस लेख को अपने ब्लॉग पर प्रकाशित किया है ताकि मेरे दायरे के पाठक उनसे  रूबरू हो सके|


आप उनकी अन्य रचना पढने के लिए उनके ब्लॉग पर जा सकते हैं जिसके लिए मैंने अपने ब्लॉग में लिंक बना रखा है| धन्यवाद 


आग ,आटा और लोहा


रोटियों की सही सेंक के लिए, आग और आटे के बीच लोहे को आना पड़ता है|लोकतंत्र में अति का परिणाम अगर देखना हो तो पश्चिम बंगाल आइये ,सामाजिक ,सांस्कृतिक ,बौद्धिक और साहित्यिक तौर पर शेष भारत के सन्मुख जबरिया उदाहरण बनने की कोशिश करता हुआ यह राज्य आज राजनैतिक अतिवादिता के खिलाफ क्रांति का नया ठिकाना बन गया है ,ये हिंदुस्तान में राजनीति के आभिजात्य संस्करण के खिलाफ आबादी का संगठित हस्तक्षेप है |अब तक मीडिया के अन्दर या फिर मीडिया के बाहर नंदीग्राम -सिंगुर-लालगढ़ में हो रहे जनविद्रोह को सिर्फ वामपंथी सरकार के खिलाफ नक्सलवादी विरोध बताकर इतिश्री कर ली गयी ,हकीकत का ये सिर्फ एक हिस्सा है ,पूरी हकीकत जानने के लिए आपको उस पश्चिम बंगाल में जाना होगा ,जिसने आजादी के पहले और आजादी के बाद भी शोषण ,उत्पीडन और जिंदगी की सामान्य जरूरतों के लिए सिर्फ और सिर्फ संघर्ष किया है ,आपको पश्चिम मिदनापुर के रामटोला गाँव के नरसिंह के घर जाना होगा ,जो यह कहते हुए रो पड़ता है कि उसने भूख से तंग आकर अपनी बेटी के हिस्से की भी रोटी खा ली ,आपको बेलपहाडी ,जमबानी ,ग्वालतोड़,गड्वेता और सलबानी के ठूंठ पड़े खेतों को भी देखना होगा ,आपको प्रकृति के साथ -साथ वामपंथी सामंतों द्वारा बरपाए गए कहर को भी देखना होगा ,साथ ही आपको उन अकाल मौतों को भी देखना होगा ,जिसकी फ़िक्र न तो सत्ता को थी और न ही उसकी सरपरस्ती में चौथे खंभे का बोझ उठाने की दावेदारी करने वालों के पास |

अगर केंद्र सरकार या तृणमूल कांग्रेस ये समझती हैं कि मौजूदा जनविद्रोह सिर्फ और सिर्फ वामपंथियों के खिलाफ है तो ये भी गलत है समूचा पश्चिम बंगाल उस शेष भारत की अभिव्यक्ति है जिसे देश के राजनैतिक दलों ने सिर्फ और सिर्फ वोटिंग मशीन समझ कर इस्तेमाल किया और छोड़ दिया ,ये शेष भारत वो भारत है जहाँ तक न तो संसाधन पहुंचे और न ही सरकार ,ये जनविद्रोह माओवाद या किसी अन्य विचारधारा की उपज नहीं है ,ये किसी भी जिन्दा कॉम के प्रतिरोध की अब तक की सबसे कारगर तकनीक है,ये जनविद्रोह सिर्फ पश्चिम बंगाल में जनप्रिय सरकार के गठन के साथ ख़त्म हो जायेगा ऐसा नहीं है ,कल को अगर पश्चिम बंगाल से शुरू हुई इस क्रांति में देश भर के युवाओं ,किसानों ,खेतिहर मजदूरों और आदिवासी गिरिजनों की भागीदारी हो तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए ,निस्संदेह लोकतंत्र को परिष्कृत करने के लिए इस क्रांति की जरुरत बहुत लम्बे अरसे से थी |
जब कभी दुनिया में वामपंथ के इतिहास की चर्चा होगी ये चर्चा भी जरुर होगी कि हिंदुस्तान के एक राज्य में २५ वर्षों तक राज्य करने के बाद कैसे एक वामपंथी सरकार अपने जैसे ही विचारधारा के लोगों की जानी दुश्मन हो गयी ,उस वक़्त ये भी चर्चा होगी कि कैसे एक देश की सरकार पहले तो अपने ही देश के गरीब और अभावग्रस्त लोगों की दुश्वारियों को जानबूझ कर अनसुना करती रही ,और फिर अचानक हुई इस जानी दुश्मनी का सारा तमाशा नेपथ्य से देखकर तालियाँ ठोकने लगी |उस एक महिला की भी चर्चा होगी जिसे हम ममता बनर्जी के नाम से जानते हैं जो संसद में तो शेरनी की तरह चिंघाड़ती थी ,लेकिन नंदीग्राम से पहले उसे भी पश्चिम बंगाल के उस हिस्से के दर्द से कोई सरोकार नहीं था जो हिस्सा आज पूरे पश्चिम बंगाल की राजनीति की दिशा तय कर रहा है | नेहरु की भी चर्चा होगी ,इंदिरा गाँधी की भी चर्चा होगी और उस कांग्रेस पार्टी की भी चर्चा होगी जिसने वामपंथियों के साथ देश पर राज किया, कोंग्रेस पार्टी के राहुल की भी चर्चा होगी जो अपने संसदीय क्षेत्र के दलित परिवार के घर में रात बिताता है लेकिन अभी तक पश्चिम बंगाल के उस हिस्से में नहीं गया |मेरा मानना है पश्चिम बंगाल में सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या वामपंथी पार्टियों की, नेता एक ही वर्ग के थे. यानी अभिजात्य वर्ग के| उन्हें किसानों और आदिवासियों की मूल समस्याओं की जानकारी ही नहीं थी तो वो उसका समाधान क्या करते |आदिवासियों के साथ किये गए राजनैतिक छलावे पर बी बी सी के मित्र सुधीर भौमिक कहते हैं ‘विकास तो कोई मुद्दा ही नहीं है क्योंकि यहां के लोगों की समस्याओं को तो नेता कभी समझे ही नहीं. सीपीएम के भूमि सुधार का भी इन लोगों को लाभ नहीं मिला. आदिवासियों को उम्मीद थी कि अलग झारखंड राज्य बनने पर उन्हें कुछ फ़ायदा मिलेगा, लेकिन इस इलाक़े को झारखंड राज्य में शामिल नहीं किया गया और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने इस इलाक़े को शामिल किए बिना ही अलग राज्य को स्वीकार कर लिया.’|ये बात सही भी है इनकी समस्यों को कभी समझा ही नहीं गया ,ऐसे में इस क्रांति के अलावा क्या और कोई विकल्प शेष था ?
आज पश्चिम बंगाल में चार तरह के लोग रह रहे हैं विद्वतजन ,अभिजन ,भद्रजन और आमजन |भद्रजन वो हैं जिनकी बदौलत अब तक राज्य में वामपंथियों का शासन रहा ,उनके लिए वामपंथी विचारधारा लोकतान्त्रिक परम्पराओं से परे उनके जीवित रहने की शर्त बन गयी है ,अभिजन वो हैं जिनके हाँथ में विधानसभा से लेकर ग्राम पंचायतों तक का नेतृत्व रहा है ,ये वो लोग हैं जो फटे पुराने कुर्तों में मुँह में विल्स सिगरेट दबाये चश्मे के शीशे के पीछे से दुनिया देखते हैं ,विद्वतजन में लेखिका महाश्वेता देवी,अम्लान दत्त, जय गोस्वामी, अपर्णा सेन, सावली मित्र, कौशिक सेन, अर्पिता घोष, शुभ प्रसन्न, प्रतुल मुखोपाध्याय भास चक्रवर्ती ,और कृपाशंकर चौबे जैसे वो लोग हैं जो ,आमजन की हकदारी को लेकर खुद के जागने का दावा कर रहे हैं लेकिन वामपंथी सरकार के दांव पेंचों की दुहाई देकर खुद को समय -समय पर तटस्थ कर ले रहे हैं |गौरतलब है कि जब वहां की सरकार ने पुलिस संत्रास विरोधी जनसाधारण कमेटी को आर्थिक मदद दिए जाने के नाम पर महाश्वेता देवी एवं अन्य विद्वतजनों के खिलाफ गैरकानूनी क्रियाकलाप निरोधक (संशोधन) कानून (यूएपीए) के तहत मुकदमा दर्ज किये जाने की बात कही तो आनन फानन में हर जगह ये कहा जाने लगा कि हमारा साथ आदिवासियों के लिए था माओवादियों का हम विरोध करते रहेंगे |मगर सच ये है कि ये विद्वतजन न तो माओवादियों का खुल कर विरोध कर रहे हैं और न ही मौजूदा आन्दोलन का पुरजोर समर्थन |चौथे और आखिरी आमजन हैं ,वो आमजन जिन्हें जन भी नहीं समझा गया ,आजादी के बाद से अब तक न तो उन्हें सत्ता में भागी दारी मिली और न ही दो जून की रोटी की गारंटी |

मौजूदा क्रांति को सिर्फ सशस्त्र क्रांति के रूप में देखना बहुत बड़ी गलती होगी ,हाँ ये जरुर है कि इस जनांदोलन में माओवादियों की भागीदारी से हिंसा भी इसका एक हिस्सा बन गयी है ,लेकिन ये भी सच है कि अगर आज आप कथित तौर पर नक्सली आन्दोलन से प्रभावित इलाकों में जायेंगे तो वहां का आदिवासी अगर लोकतंत्र में विश्वास की बात नहीं करेगा तो वो हथियार उठाने की बात भी नहीं करेगा ,उसके मन में व्यवस्था के प्रति पैदा हुआ प्रतिकार अहिंसक होने के साथ साथ उग्र भी है जो कि किसी भी सफल क्रांति की पहली शर्त है |वो जीना चाहता है ,उसे तो सिर्फ पेट भर खाना और सर पर छत की जरुरत है ,मगर अफ़सोस उसके हिस्से में पहले जलालत भरी जिंदगी थी और अब गोली है |सिंहासन के पुजारी सर पर हाँथ रखकर गले लगाने की तरकीब भूल गए हैं ,सो अब जनता के आने की बारी है

Changing Waves


Hi Dear Indians,

In last week the newspaper have a news of contesting election by Kalavati. You will say "Who is Kalavati?" So first read the article on it on www.pravakta.com.

This is very pleased news for me and now i am seeing the ray of morning sun after a long dark night. Yes my dear friends its is the only way to take responsibility rather than complaining about our Indian System.
What makes me more pleased is this is doing by a rural & Agriculturist women? Her decision to reject every political party tells them they are not the really represent people of India. So now it is our responsibility to give necessary support her.
But the real problem is absence of a National Vision. In my opinion now turn is for youth for coming ahead in political line. It is help in creating a national vision and in future we can develop a national front. So Dear come forward for Dare to Change.

Wednesday, November 11, 2009

व्यथा एक सूरदास की

मैंने  अपनी भावनाओं को जब-तब कुछ शब्दों के रूप में अपनी नोट-बुक में सहेज कर रखा था, जिसे में आज से शीर्षक खंड " मेरी कवितायेँ " के अर्न्तगत इस ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूँ| आपसब से निरंतर आशीर्वाद चाहूँगा| धन्यवाद|


मैंने अपनी पहली कविता इस कल्पना  से प्रेरित होकर लिखी थी की यदि ये आँखे जिनसे मैं ये सुन्दर संसार देख रहा  हूँ, नहीं होती तो मैं क्या और किसतरह सोचता| तो आपके सामने मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ  दिनांक १४/११/2001 को लिखी शीर्षक कविता "व्यथा एक सूरदास की"|



दिनांक १४/११/2001
व्यथा एक सूरदास की

शुभ्र नयनों के रौशन हीरों,
तेरी ज्योति गई कहाँ ?
नयन तेरी ही व्यथा कहते,
तिरस्कृत किया संसार मुझे|

सरोवर में खिलनेवाले  कमल,
जाने क्यों मुरझा गए!
इस सुने सरोवर में
नहीं झांकता अब कोई!

भवंर में फसा हूँ मैं,
क्या पार होगा सागर ?
बिन पतवार के नैया 
टीस ही तो बढाती है|

ये कैसी सुबह 
जिसका प्रारंभ नहीं,
और ये कैसी रात
जिसका अंत नहीं|

आधार रखकर भी सहारा लूँ|
कर होकर भी भिखारी हूँ|
जबान रखकर भी बेजुबान हूँ|
मेरी व्यथा न जाने कोई!

जन्मदाता ने तिरिस्कार किया,
औरों का क्या कहना|
इतनी निष्ठुरता मेरे प्रति,
प्रेम की एक बूंद कहाँ|

दीनता की चादर ओढे,
पशुओं के संग रात गुजारूं|
अँधेरे संसार का बाशिंदा,
ठिकाना कहीं  नहीं है मेरा|

नहीं चाहिए
ऐसा जीवन,
इससे अच्छा
पशु जीवन|

जैसे नष्ट किया जाता
बेकार कृत्यों को,
वैसे ही मुक्त करो 
मेरे भी जीवन को|

उस पशु को दिया 
इतना अल्प जीवन,
मिला मुझे शतायु वर,
जो शाप ही है मेरे लिए|

कहीं ऐसा न हो की 
तेरी निष्ठुरता 
मुझे पागल कर दे
और  मैं हैवान बन जाऊं|


हो सकता है की 
मानवता भागे मुझसे,
प्रेम का  तरसा मैं 
दूसरो को तरसाऊँ|

कहलाऊँ मैं अपराधी 
पर क्या मैं दोषी ?
मैं बनू दंड का भागी,
पर क्या होगा ये न्याय !

इतना होने पर भी,
हे प्रभु! मैं आभारी,
याद आया गीता-दर्शन,
अच्छा करता तू हमेशा.

मानव को पशु बनते 
तो नहीं देख रहा,
जननी का अपमान होते 
तो नहीं देख रहा|

ऐसे इस तपन का
आभाष पाऊँ मैं !
फिर भी यह पीड़ा
साक्षात् से तो कम होगी|

धृतराष्ट्र  नहीं  मैं
सूरदास हूँ मैं|
गाकर कोमल ह्रदय में 
फूल खिलाता हूँ मैं|

हो सकता है की 
तम में दुबे रहे पट !
पर मन मैं बसे 
रब को जान गया हूँ अब|



बाधाएं परीक्षा लेती ही हैं|
ग्रहण भी लगता ही है|
पर यह भी है सही,
रात्रि पश्चात् सुबह है ही|

कायर ही तलाशते बहाने,
दोष देते इश्वर को|
भाग्य का रोना रो-रो कर,
छिपाते फिरे अपनी आलस्यता|

जब अंग-भंग नेल्सन 
लड़ सकता नेपोलियन से,
तो मैं क्या नहीं 
लड़ सकता तक़दीर से|

दोष किसमें नहीं होता!
चाँद भी तो है दागदार!
वह रोशन करती निशा को,
मैं भी तो कर सकता हूँ ऐसा|

असफलता से प्रारंभ होती है|
पर सफलता तो मिलती है|
डगमगाते पाऊँ थमते भी हैं|
भीषण तूफान भी थमता है|

जग रहा हूँ मैं,
इस भोर के साथ,
एक नए रूप मैं,
व एक नयी आशा से|

 
|| समाप्त ||


Friday, November 6, 2009

सरकार का विरोध करना जरुरी है

सरकार का विरोध करना जरुरी है



आप सभी बंधुओ से सर्वप्रथम माफ़ी चाहता हूँ की बहुत दिनों से आपके बीच से अनुपस्थित रहा हूँ. वास्तव में दीपावली और छठ के पवन अवसर पड़ अपने पैतृक घर गया था. लेकिन जैसे ही दिल्ली आगमन हुआ वैसे ही डीटीसी बसों के किरायों में बढोतरी का समाचार सुना.

वर्तमान परिस्थितयों में किराया-वृद्धि लाजमी था लेकिन वृद्धि-दर को देखते हुए में सरकार के फैसले और कारण को बिलकुल अव्यवहारिक समझता हूँ . सर्वविदित है की डीटीसी एक बड़ी नुकसान के गर्त में जा चूका है अतः यह जरुरी था की कुछ
कदम उठाये जाय पर प्रश्न यह है की सरकार के नुकसान का कारण प्रबंधन खामियां हैं या किराया दर. जहाँ ब्लू लाइन बसें भारी मुनाफा कम रही हैं वहीँ दूसरी ओर सरकारी घाटा कैसे हो रहा है. जबकि ब्लू लाइन बसों में २०%  सवारी staff चलाती हैं यानि टिकेट नहीं लेती हैं और साथ में दो नंबर का पेमेंट भी करती हैं. इसके बाबजूद वो मुनाफा में हैं. मजे की बात यह है की इन बसों के मालिक सरकारी उच्चाधिकारी और मुख्य राजनितिक पार्टियों से जुड़े लोग ही हैं अर्थात इन्हें पता है की मुनाफा कैसे होता है. अतः नुकसान के नाम पर किराये-वृद्धि का हम विरोध करते हैं.

आगामी साल राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी में परिवहन व्यवस्था में सुधार भी अहम् एजेंडा है अतः इसलिए इस आधार पर किराया वृद्धि की जा सकती है मगर सशर्त यही है की पहेले वे अपनी प्रबंधन खामियां दूर करें. साथ ही में सरकार के किलोमीटर रेंज से सहमत नहीं हूँ  और सरकार के लिए में सुझाव देना चाहूँगा की किराया कुछ इस तरह से हो -  दो किलोमीटर तक किराया दो रूपये, दो से छे किलोमीटर तक पांच रूपये, छे से बारह किलोमीटर तक दस रूपये और बारह के बाद पंद्रह रूपये हो.

लेकिन सबसे मुख्य बात यह है की यदि सरकार तक हमारी बात कैसे पहुंचे और कैसे अपनी जायज मांग मनवाई जाय. इसके लिए में निम्नलिखित कदम उठाने के लिए आप सब का सहयोग चाहूँगा.
  1.  अपने निगम-पार्षद और  विधायक  को इस सम्बन्ध में पत्र लिखे या सामूहिक  रूप से मिले. 
  2. बसों में यात्रा करते वक्त अपना विरोध जताने के लिए  अपनी बांह पर काली पट्टी का  प्रयोग करें.
  3. यदि आप किसी मंच और समूह से जुड़े हैं तो सामूहिक रूप से मुख्यमंत्री कार्यालय और डीटीसी महाप्रबंधक के कार्यालय व अन्य सम्बंधित कार्यालय में  ज्ञापन दें. 
  4. और वो सभी अहिंसक रास्ते जिनसे आप सरकार तक बात पहुंचा सके क्योंकि हिंसा से आखिरकार नुकसान हमें भी है पर "यदि सरकार बहरी हो तो बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरुरत परती है" - भगत सिंह की इस उक्ति से में बिलकुल सहमत हूँ पर यह हमारा अंतिम विकल्प है जिसकी कोई जरुरत नहीं है.
 सवाल यह नहीं है की वो हमारी बात सुने या नहीं बल्कि यह हमारा हक़ और जिम्मेदारी है की हम उनको बताये की हम आपके कम से खुश नहीं हैं चाहे आप विधायक हों, चाहे पार्षद, चाहे सांसद और फिर चाहे मंत्री हो या मुख्यमंत्री. यदि आप सब उन लोगों में से हैं जो सिर्फ सुविधाएँ चाहते हैं लेकिन सिर्फ जरा सी परेशानी के कारण जिम्मेदारिओं से बचते हैं तो डूब मरे और आपको कोई हक नहीं है की आप सरकार के खिलाफ बोले.

सवाल यह भी नहीं है की हम और आप कौन हैं और हम क्या कर सकते हैं. बल्कि सवाल यह है की आखिर कब तक हम चुप बैठेंगे और क्यों? क्या हम पांच साल तक बैठे रहे अपना विरोध जताने के लिए, नहीं एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए हमें सरकार की गलत नीतियों और आदेशो का विरोध करना ही होगा. इसलिए आगे आने के लिए किसी और के बजे हमें ही आगे बढ़ना होगा.

सवाल सिर्फ डीटीसी किरायों का नहीं बल्कि आज हमारे पास हरेक स्तर पर चाहे स्थानीय हो, या राज्य स्तर पर या चाहे फिर राष्ट्रीय स्तर पर, हमारे पास ऐसे ढेरों मुद्दे हैं  जहाँ हम सरकार के काम-काज से खुश नहीं हैं.  लेकिन हाथ पे हाथ धरे रहने के कारण ही हम इस विकट स्तिथि में पहुचें हैं जहाँ हम अपने-आप को कहीं नहीं पाते हैं.

एक  प्रश्न और यह है की विरोध कौन करे. मेरी राय पर यह जिम्मेदारी भी middle क्लास की है क्योंकि निचले पायदान पर खड़े लोग जो दो जून की रोटी के लिए भी मोहताज हैं उनसे यह अपेक्षा बेमानी होगी वहीँ दूसरी ओर टॉप क्लास वालों को इन चीजों से फर्क नहीं पड़ता.

दिनांक २४/११/२००९

आप सबको हर्ष के साथ बताना चाहूँगा आख़िरकार सरकार ने अपनी stage  system  की गलती को सुधारते हुए ०-३ कि.मी. के range को ०-४ कि.मी. कर दिया | लेकिन दुर्भाग्य-वश पब्लिक कि support  के आभाव में सरकार पर हमलोग  किराया घटने के लिए आवश्यक वांछित दबाब बनाने में असफल रहे | लेकिन दोस्तों यह समाज पर ही निर्भर है कि वो किसतरह रहना चाहता है अतः निराश होने कि बजाय हम सभी लोगों को एक स्वस्थ समाज निर्माण पर ध्यान देना चाहिए जिसकी शुरुवात सबसे पहले अपने और फिर अपने परिवार से करें | एक स्वस्थ परिवार से ही स्वस्थ समाज का निर्माण होगा और फिर स्वस्थ देश का निर्माण होगा | अपने में विश्वास रखें कि हाँ! हम यह कर सकते हैं और करेंगे | यदि आपमें ऐसा करने कि हिम्मत और सोच नहीं है तो आपको कोई अधिकार नहीं है कि आप किसी के खिलाफ बोले और किसी की निंदा करें, क्योंकि वो लोग जिनसे आप परेशान है आपकी बीच का ही है और आप के ही द्वारा चुना गया है | बगैर complain  किये आप नहीं कह सकते कि सुनवाई  नहीं होती |

" छेद तो आसमान में भी किया जा सकता है,  
    देर तो सिर्फ एक पत्थर उठाकर फेंकने की है | "







Saturday, October 10, 2009

नारद भक्ति सूत्र


जय गुरुदेव !

मैंने गत दिनों परम् आदरणीय गुरुदेव द्वारा विश्लेषित नारद भक्ति सूत्र पढ़ा जो मैं आप समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ| ताकि आप सभी भी इस परम् ज्ञान का लाभ उठायें|


नारद भक्ति सूत्र

प्रेम की पराकाष्‍ठा

जीवन की हर इच्‍छा के पीछे एक ही मांग है। आप यदि परख कर देखो कि वह एक मांग क्‍या है, तो निश्चित रूप से मालूम पड़ता है कि वह है ढाई अक्षर प्रेम का। सब-कुछ हो जीवन में, पर प्रेम न हो, तब जीवन जीवन नहीं रह जाता। प्रेम हो, और कुछ हो या न हो, फिर भी तृप्ति रहती है जीवन में, मस्‍ती रहती है, आनन्‍द रहता है, है कि नहीं।

जीवन की मांग है प्रेम और जीवन में परेशानियां, समस्‍यायें, बन्‍धन, दु:ख, दर्द यह सब होता भी प्रेम से ही है। व्‍यक्ति से प्रेम हो जाए, वही फिर मोह का कारण बन जाता है। वस्‍तु से प्रेम हो जाए तो लोभ हो जाता है, उसी को लोभ कहते हैं। अपनी स्थिति से प्रेम हो जाए, उसको मद कहते हैं, अहंकार कहते हैं। और ममता, अपनेपन से प्रेम यदि मात्रा से अधिक हो जाए, तो उसे ईर्ष्‍या कहते हैं। प्रेम अभीष्‍ट है, फिर भी उसके साथ जुड़ा हुआ यह सब अनिष्‍ट किसी को पसन्‍द नहीं है। हम इससे बचना चाहते हैं क्‍योंकि अनिष्‍टों से ही दु:ख होता है।

फिर जीवन की तलाश क्‍या है। हमें एक ऐसा प्रेम मिले जिससे कोई विकार, जिससे कोई दु:ख, कोई बन्‍धन महसूस नहीं हो। जीवन भर प्रेम की खोज चलती है। बचपन में इसे खि लौनों में खोजते हैं, खेल में खोजते हैं, फिर उसी प्रेम को दोस्‍तों में खोजते हैं, साथी-संगियों में खोजते हैं। फिर आगे चलकर, वृद्धावस्‍था में, बच्‍चों में खोजते हैं। तब भी हाथ कुछ नहीं आता, खाली ही रह जाता है।

यदि सचमुच में प्रेम का अनुभव, शुद्ध प्रेम का अनुभव एक बार भी हो जाए, तो व्‍यक्ति का जीवन परिवर्तन की दिशा पर चल पड़ता है। एक बार भी एक झलक मिल जाए भक्ति की, फिर व्‍यक्ति के जीवन में समष्टि उतर आती है, तृप्ति झलकती है, कदम-कदम पर आनन्‍द की लहर उठती है।

यदि हम प्रेम को जानते ही नहीं होते, तब प्रेम के बारे में चर्चा करना, विचार करना, कुछ कहना, सब बेकार है। यदि कोई व्‍यक्ति अन्‍धा है, तो उसको रोशनी के बारे में बताना मुश्किल है, या कोई बहरा है, उसको संगीत के बारे में समझाना करीब-करीब असम्‍भव है। इसी तरह यदि हम प्रेम को जानते ही नहीं होते, तब उसके बारे में कहना, बताना, चर्चा करना, विचार करना, सब बेकार है।

हम प्रेम को जानते हैं, या ऐसा कहें, प्रेम को हम महसूस करते हैं जीवन में, मगर उसकी गहराई में नहीं उतरे। हमारे जीवन में प्रेम एक कूएं जैसा बनकर रह गया है। एक छोटा कंकड़, पत्‍थर भी यदि उसमें डालो तो एकदम नीचे की मिट्टी ऊपर आने लगती है। परन्‍तु मन यदि सागर जैसा हो, प्रेम यदि इतना वि शाल हो, तब चाहे पहाड़ भी गिर जाए उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है। जीवन में प्रेम उदय हो और उसकी वि शालता हमारे अनुभव में आ जाए, जब समझना जीवन सफल हो गया। जरा सोचो न, मान लो आपको सब कुछ मिल जाए जीवन में, मगर प्रेम नहीं, आप जीना पसन्‍द करेंगे क्‍या। प्रेम अनुभव में पूर्ण रूप से आ जाए, तब उसके बारे में व्‍याख्‍या करने की कोई जरूरत नहीं। गहराई में यदि एक बार भी तुम भक्ति की श्‍वास ले लोगे, फिर भक्ति क्‍या है, बताने की जरूरत नहीं। किंतु एक धुंधला सा अनुभव तो है, थोड़ा पता तो है, मगर पूरा समझ में नहीं आ रहा। तब नारद महर्षि कहते हैं:-


अब हम भक्ति की चर्चा करते हैं। कब, जब हम जानते हैं प्रेम क्‍या है। जब हम जीवन में, किसी न किसी अंश पर, प्रेम और भक्ति को, शान्ति और तृप्ति को, अनुभव कर चुके हैं। खुद के जीवन में मुड़कर देख चुके हैं, अनुभव कर चुके हैं कि हर परिस्थिति, वस्‍तु, व्‍यक्ति परिवर्तनशील है। दुनिया में सब कुछ बदल रहा है मगर कुछ ऐसा है जो बदलता नहीं है। वह क्‍या है यह नहीं पता है।

हम अपने बारे में भी देख चुके हैं, अपना सब कुछ बदल रहा है। विचार बदलते हैं, शरीर तो बदल चुका, वातावरण में बहुत परिवर्तन आया है। दिन-दिन नए वातावरण से, परिस्थितियों से गुजरते हुए हम निकल रहे हैं। फिर वह क्‍या है जो अपरिवर्तनशील है, जो बदला नहीं है, इस खोज की एक आकांक्षा मन में उठे। भई, जब सुनने की चाह हो तब बोलने से फायदा होता है, प्‍यास हो तब पानी पीने में मजा आता है, तब वह अच्‍छा लगता है।

ऐसी प्‍यास हमारे भीतर जग जाए, तब नारद कहते हैं, अच्‍छा अब मैं बताता हूं भक्ति क्‍या है। अब मैं उसकी व्‍याख्‍या करता हूं। अब तुम ऐसे प्रेम की तलाश में हो जिसका रूप क्‍या है, लक्षण क्‍या है, यह मैं तुम्‍हें बताता हूं।

नारद माने वह ऋषि जो तुम्‍हें अपने केन्‍द्र से जोड़ देते हैं, अपने आप से जोड़ देते हैं। नारद महर्षि का नाम तो विख्‍यात है, सब ने सुना है। जहां जाएं वहां कलह कर देते हैं नारद मुनि। कलह भी वही व्‍यक्ति कर सकता है जो प्रेमी हो, जिसके भीतर एक मस्‍ती हो। जो व्‍यक्ति परेशान है वह कलह नहीं पैदा कर सकता, वह झगड़ा करता है। झगड़ा और कलह में भेद है। जिनकी दृष्टि में समस्‍त जीवन एक खेल हो गया है वह व्‍यक्ति तुम्‍हे भक्ति के बारे में बताते हैं भक्ति क्‍या है


असल में भक्ति व्‍याख्‍या की चीज नहीं है। व्‍याख्‍या दिमाग की चीज होती है, भक्ति एक समझ दिल की होती है, प्रेम दिल का होता है, व्‍याख्‍या दिमाग की होती है। व्‍यक्ति का जीवन पूर्ण तभी होता है जब दिल और दिमाग का सम्मिलन हो। इसीलिए कहते हैं कि सिर्फ भाव में बह जाओगे तब भी जीवन पूर्ण नहीं होगा। और दिमाग के सिद्धान्‍तों में, विचारों में उलझे रहोगे तब भी जीवन पूर्ण नहीं होगा। दिमाग से दिल को समझो, दिल से दिमाग को परखो।


अब हम भक्ति के बारे में व्‍याख्‍या करते हैं। जिसकी व्‍याख्‍या करना करीब-करीब असम्‍भव है वह सिर्फ नारद के लिए सम्‍भव है। बहुत से ऋषि हुए हैं इस देश में, उनमें से एक नारद और एक शाण्डिल्‍य के सिवाय किसी और ने भक्ति के बारे में व्‍याख्‍या नहीं की है। उसमें नारद ही भक्ति के प्रतीक हैं क्‍योंकि वे जानते हैं केन्‍द्र को भी और वे जानते हैं वृत्‍त को भी।


अब हम किसी से पूछें, ऋषिकेश कहां हैं। तो काई हरिद्वार जानने वाला होगा वह कहेगा देखो हरिद्वार जानते हो न, ऋषिकेश हरिद्वार से पचीस किलोमीटर की दूरी पर है, उत्‍तरभारत में, यू पी में है। कुछ समझाने के लिए भी एक निदेशन की जरूरत है, जिसे अग्रेंजी में रेफरेन्‍स पाइन्‍ट कहते हैं। जैसे दिल्‍ली कहां है। हरियाणा और यू पी के बीच में।

वह भक्ति क्‍या है। परमप्रेम, अतिप्रेम, प्रेम की पराकाष्‍ठा है। जब प्रेम क्‍या है नहीं जानते हैं, तब भक्ति कैसे समझ सकते हैं। तो कहते हैं प्रेम तो तुम जानते हो। माता का प्रेम तुमने जाना, पिता का प्रेम जाना, भाई का, बहन का प्रेम तुमने जाना, पति-पत्‍नी का प्रेम तुमने जाना। बच्‍चों के प्रति प्‍यार तुम्‍हारे अनुभव में आ गया। वस्‍तु के प्रति लगाव, व्‍यक्ति के प्रति लगाव, परिस्थिति के प्रति लगाव, जिससे मोहित होकर हम दु:खी हो जाते हैं उस प्रेम को जानने पर, कहते हैं, इस प्रेम की ही पराकाष्‍ठा है भक्ति।

एक प्रेम को वात्‍सल्‍य, दूसरे को स्‍नेह, तीसरे को प्रेम कहते हैं प्रीति, गौरव। इस तरह से अलग-अलग नाम से हम प्रेम को जानते हैं। और इन सब तरह के प्रेम से परे जो एक प्रेम है, उसी को भक्ति कहते हैं। और इन सब प्रेम को अपने में समेटकर पूर्ण रूप से जो निकली है जीवनी ऊर्जा, जीवनी शक्ति, वही प्रेम है।


अक्‍सर क्‍या होता है, प्रेम तो होता है हमें, किन्‍तु वह प्रेम बहुत शीघ्र ही विकृत हो जाता है। उसकी मौत हो जाती है। प्रेम जहां ईर्ष्‍या बनी तो प्रेम की मौत हो गई वहां पर। ईर्ष्‍या में बदल गया वह प्रेम। जहां प्रेम लोभ हुआ तो वहां प्रेम खत्‍म हो गया, वह प्रेम ही द्वेष बन गया। प्रेम हमारे जीवन में हमेशा मरणशील रहा है, इसीलिए ही समस्‍या है।

आप किसी से भी पूछो आप अपने लिए जी रहे हो क्‍या - - - - - सब एक दूसरे के लिए जी रहे हैं। फिर भी कोई नहीं जी रहा है। इतना कोलाहल, इतनी परेशानी, इतनी बेचैनी जीवन में क्‍यों। प्रेम की मौत हो गई। मगर परमप्रेम का स्‍वरूप क्‍या है, तब कहते हैं नारद - -



भक्ति एक ऐसा प्रेम है जिसकी कभी मृत्‍यु नहीं, जो कभी मरता नहीं है, दिन-प्रतिदिन उसकी वृद्धि होती है।

जो कभी मरती नहीं, उस भक्ति को जानने से क्‍या होगा।




भक्ति पाकर क्‍या करोगे तुम जीवन में। इससे क्‍या होता है। तब कहते है सिद्धो भवति। कोई कमी नहीं रह जाएगी तुम्‍हारे जीवने में। भक्‍तों के जीवन में कोई कमी नहीं होती। किसी भी चीज की कमी नहीं होती, किसी भी गुण की कमी नहीं होती। ‘’सिद्धो भवति, अमृतो भवति’’ जो अमृतत्‍व को जान लिया, उसके जीवन में अमृतत्‍व फलप गया। जब हम क्रोधित होते हैं, तब हम एकदम क्रोध में हो जाते हैं और जब खुश होते हैं तब वह खुशी हमारे में छा जाती है। हम कहते हैं न खुशी से भर गए। इसी तरह अमृतत्‍व को जानते ही, भक्ति को जानने ही लगता है ‘’मैं तो शरीर नहीं हूं, मैं तो कुछ और ही हूं।‘’ मैं वही हूं। मेरी कभी मृत्‍यु हुई ही नहीं, और न ही होगी।‘’ जब मन सिमटकर अपने आप में डूब गया तब जो रहा वह गगन जैसी वि शाल हमरी सत्‍ता। कभी गगन की मृत्‍यु देखी है, सुनी है। मृत्‍यु शब्‍द ही मिट्टी के साथ जुड़ा हुआ है। मिट्टी परिवर्तनशील है, आकाश नहीं। मन पानी के साथ जुड़ा हुआ है, जैसे पानी बहता है वैसे मन भी बहता है। आज के विज्ञान से यह बात सिद्ध हुई है कि शरीर में 98 प्रति शत आकाश तत्‍व है, जो बचा हुआ दो प्रति शत है उसमें साठ प्रति शत पानी है, जल तत्‍व है। मृण्‍मय शरीर मौत के अधीन है, मगर चेतना अमर है।

प्रेम चमड़ा है या चेतना। क्‍या है प्रेम। यदि प्रेम सिर्फ मिट्टी होता तो वह अमृतत्‍व में नहीं ले जा सकता, भक्ति तक नहीं पहुंचा सकता। परम प्रेम जो है वह अमृतस्‍वरूप है, वही तुम्‍हारा स्‍वरूप है। सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्‍तो भवति तृप्‍त हो जाओ।


नारद अगले सूत्र में कहते हैं अच्‍छा, इसका प्राप्‍त करने के बाद क्‍या क्‍या नहीं करते ......... दोनों तरफ देखना पड़ता है न लक्षण। एक तो आपने क्‍या पाया और आपने क्‍या खोया। पाया तो यह कि हमारे भीतर जो तत्‍व है वह न भीतर है, न बाहर है, सब जगह है या दोनों जगह है, और वह अमृतत्‍व है। और जिसके पाने से जीवन में कोई कमी नहीं रह जाती, यह भक्ति है और तृप्ति है। तृप्ति झलकती है जीवन में, तो यह भक्ति पाने का लक्षण हुआ।

भक्ति पाने से क्‍या-क्‍या नहीं करते। मुझे यह चाहिए, वह चाहिए....... और चाह जिससे मिट जाती है - देखो, जीवन में सौभाग्‍यशाली उन्‍हीं को कहते हैं जिनके मन में चाह उठने से पहले ही पूरी हो जाये। भाग्‍यशाली हम उसी को कह सकते हैं जिनके भीतर चाह की कोई आवश्‍यकता ही न पड़े। माने भूख लगे भी नहीं, तब तक खाना सामने मौजूद हो, प्‍यास लगे ही नहीं मगर पानी हो, अमृत हो सामने पीने के लिए। माने चाहे उठने की सम्‍भावना ही नहीं रहे तो कह सकते हैं भाग्‍यशाली हैं। और दूसरे नम्‍बर का भाग्‍यशाली, उससे जरा कम, चाहे उठे, उठते ही पूर्ण हो जाए, माने प्‍यास लग रही हो आपको, तुरन्‍त कोई पानी लेकर आए। माने चाह उठी और उसके पूर्ण होने में कोई देर न लगे। वे दूसरे नम्‍बर के भाग्‍यशाली हैं। तीसरे नम्‍बर के भाग्‍यशाली वे होते हैं जिनके भीतर चाह तो उठती है मगर पूरा होने में बहुत समय और परिश्रम लग जाता है। बरसों उसमें लगे रहते हैं, बहुत परिश्रम करते हैं, फिर जब वह चाह पूरी भी होती है तब भी कुछ अच्‍छा नहीं लगता। उसका आनन्‍द भी नहीं ले पाते, उसकी खुशी भी नहीं अनुभव कर पाते। ये उससे भी कम भाग्‍यशाली हैं। दुर्भाग्‍यशाली उनको कहते हैं जिनके भीतर चाह ही चाह उठती है परन्‍तु वह पूरी नहीं होती।

भक्ति को पाने से जीवने में कुछ इच्‍छा नहीं रह जाती। क्‍यों। जो आवश्‍यक वस्‍तुएं हैं, अपने आप, जरूरत से अधिक, समय से पूर्व प्राप्‍त होने लग जाती हैं।

न किन्चिद वान्‍छति न शोचति। जब चाह ही नहीं, फिर दु:खी होने की बात ही नहीं रही। वे बैठकर दु:खी नहीं होते। दु:ख माने क्‍या। भूतकाल को पकड़ना। भूत पकड़ लिया है न। सचमुच में यह बात सच है, भूत सवार हो गया। बीती हुई बातों को दिमाग में ले-लेकर हम दु:खी हो जाते हैं। चित्‍त की दशा यदि देखोगे न, हर क्षण में, हम क्षण में हम बीती हुई बातों पर अफसोस करते रहते हैं और भविष्‍य में होने वाली बातों को लेकर भयभीत होते रहते हैं। एक कल्‍पना से हम भयभीत होते हैं और स्‍मृति से हम दु:खी होते हैं। कल्‍पना और स्‍मृति के बीच में कहीं हम रहते हैं। भक्ति उस वर्तमान क्षण की बात है। कहते हैं, न किन्चिद वान्‍छति भविष्‍यकाल के बारे में ये चाहिए, वो चाहिए.... ये नहीं। न शोचति। भूतकाल को लेकर अफसोस नहीं करते। हम हर बात पर अफसोस करने लगते हैं, नाराज होते रहते हैं पुरानी बातों को लेकर, वर्तमान क्षण को भी खराब करते हैं, भविष्‍यकाल का तो कहना ही क्‍या। न किन्चिद वान्‍छति न शोचति, न द्वेष्टि जब हम लगातार चाह करते रहते हैं और अफसोस करते हैं तो इसका तीसरा भाई है द्वेष वह इनके पीछे-पीछे आ जाता है, तीसरा भागीदार। हम खुद के मन की वृत्तियों को देखकर खुद से नफरत करने लगते हैं या दूसरों से नफरत करने लगते हैं, द्वेष। मगर भक्ति के पाने से क्‍या होता है। न द्वेष्टि द्वेष मिट जाता है जीवन में, तुम कर ही नहीं सकोगे द्वेष। मन में एक हल्‍का सा द्वेष का धुआ भी उठे तो एकदम असह्य हो जाता है, क्षण भर भी उसको सहन नहीं कर पायेंगे। जब क्षण भर किसी चीज को सहन नहीं कर पाते हैं तब हम उसका त्‍याग कर देते हैं। यह हो जाता है, अपने आप। न खुद से नफरत, न किसी और से नफरत। वह नफरत का बीज ही नष्‍ट हो जाता है।
जिसको पाकर कभी चाह में, या अफसोस में, या द्वेष में मग्‍न हो जाना, माने रम जाना। यहां बताया, रमते माने जिसमें रमण कर लें। यह और सूक्ष्‍म है। प्रेम में भी रमण अधिक करने लगते हैं, तब भी हम होश खो देते हैं, प्रेम को खो देते हैं। देखो, अकसर जो लोग खुश रहते हैं न, वही लोग दूसरों को परेशानी में डाल देते हैं। वे खुशी में होश खो देते हैं और बेहोश आदमी से गलती ही होगी। वह कुछ भी करेगा उसमें कोई भूल होगी ही। यह अकसर होता है। पार्टियों में जो लोग बहुत खुश रहते हैं उनको इतनी समझ नहीं कि वे क्‍या बोल रहे हैं, क्‍या कर रहे हैं, कुछ बोल पड़ते हैं, कर बैठते हैं जिससे दूसरों के दिल में चोट लग जाती है। इसलिए रमण भी नहीं करते। और उत्‍साहित भी नहीं होते। यह शब्‍द जरा चौकाने वाला है। क्‍या। भक्ति माने जिसमें उत्‍साह नहीं है, वह भक्ति है। भक्‍त उत्‍साहित नहीं होगा। उत्‍साह तो जीवन का लक्षण है, निरूत्‍साह नहीं है। इसको हम लोगों न गलत समझा है। खात तौर से इस देश में जब किसी भी धर्म की बात होती है, या ध्‍यान, सत्‍संग, भजन कीर्तन होता है, लोग बहुत गम्‍भीर बैठे रहते हैं, क्‍यों। उत्‍साहित नहीं होना चाहिए, खुशी व्‍यक्‍त नहीं करते। गम्‍भीरता, निरूत्‍साह यही है क्‍या भक्ति का लक्षण। नहीं। यहां जो बताया है न, न उत्‍साही भवति माने एक उत्‍साह या उत्‍सुकता में ज्‍वरित। उत्‍साह में क्‍या है, अकसर एक ज्‍वर है, फलाकांक्षा है। दो तरह का उत्‍साह है एक उत्‍साह जिसमें हम फलाकांक्षी रहते हैं, माने क्‍या होगा, क्‍या होगा, कैसे होगा, यह हो जाएगा कि नहीं इस तरह का ज्‍वर होता है भीतर। दूसरी तरह का उत्‍साह है जिसमें आनन्‍द या जीवन ऊर्जा को अभिव्‍यक्‍त करते हैं। यहां जो नोत्‍साही भवति बताया है नारद ऋषि ने, उस तरह के उत्‍साह को उन्‍होंने नकारा जिस उत्‍साह में ज्‍वर है, फलाकांक्षा है।

फिर अगले सूत्र में कहते हैं:-

यत् ज्ञात्‍वा मत्‍तो भवति, स्‍तब्‍धो भवति, आत्‍मारामों भवति।।

यत् ज्ञात्‍वा जिसको जानने से मत्‍तो भवति उन्‍मत अवस्‍था हो। स्‍तब्‍धो भवति स्‍तब्‍धता छा जाएगी, स्‍तब्‍ध ठहराव, जीवन में एक ठहराव आ जाता है, मन में एक ठहराव आता है, व्‍यक्तित्‍व में ठहराव आ जाए यह भक्ति का लक्षण है। चंचलता मिट जाए, स्थिरता की प्राप्ति हो। मत्‍तो भवति intoxicated जिसको कहते है न, नशे में, भक्ति का नशा ऐसा है जिसके बराबर और कोई नशा नहीं। प्रेम का नशा सबसे बुरा है। यह ऐसा नशा है जो तुम्‍हें सारी दुनिया को भुला देता है। यत् ज्ञात्‍वा। जिसको जानने से यहां एक फर्क है। जिसको पाना और उसको जानना दो अलग चीज है। पा लेना आसान है मगर जानना कठिन है, सो जाना आसान है मगर नींद के बारे में जानना बहुत कठिन है। प्रेम करना आसान है मगर प्रेम को समझना अति कठिन है। मगर एक बार समझ जाएं, समझने का जो साधन है, उस साधन में ही ऐस डूब जाएं, जिससे तुम समझते हो, समझने लगे हो, वही शान्‍त हो जाएगा। वही पिघल जाएगा। तभी मस्‍त हो सकते हो, उन्‍मत्‍त हो सकते हो। उन्‍मत्‍त माने क्‍या है। जहां बुद्धि पिघल गई। बुद्धि का पि घलना इतना आसान नहीं है। जब भी आदमी बुद्धि से परेशान होता है तभी पीकर उसको पिघलाने की कोशिश करता है। वह होता तो नहीं है, थोड़े समय के लिए हो जाओं उन्‍मत्‍त, नशे में, मगर वह एक स्‍थाई स्थिति तो नहीं है। मगर भक्ति में एक स्‍थाई स्थिति का उद्गम होता है। मत्‍तो भवति, मत्‍त:, एक नशा। उस नशे के साथ-साथ ठहराव। अक्‍सर जो व्‍यक्ति नशे में होता है उसमें कोई ठहराव नहीं होता, अस्थिर रहता है। स्थिरता भी रहे और उन्‍मत्‍तता भी हो, यह एक विशेष अवस्‍था है। यह भक्ति से ही सम्‍भव है। और कोई चारा ही नहीं। मत्‍तो भवति स्‍तब्‍धो भवति, आत्‍मारामों भवति। फिर वह अपनी आत्‍मा में रमण करता है। आत्‍मा में रमण करना, आत्‍मारामों भवति। शब्‍द तो बहुत सुना है, आत्‍माराम, आत्‍मा में रमण करो, अपनी आत्‍मा में ठहर जाओ, आत्‍मा तुम हो, निश्‍चय करो यह आत्‍मा है क्‍या। कई लोग कहते हैं मेरी आत्‍मा ऐसे निकल कर बाहर आ गई, मैंने देख लिया। यह देखने वाला कौन होता है, आत्‍मा को देखने वाला। यह आत्‍मा की आत्‍मा है। तुमने अपनी आत्‍मा को देख लिया, उड़ता हुआ ऊपर छत पर। ‘’ मेरी आत्‍मा निकल गई ऐसे, ज्‍योति रूप में, मैं वहां देखता रहा....... आत्‍मदर्शन.....’’ यह क्‍या है। उसका कोई रंग है, लाल है, पीला है। यह बहुत बड़ी भूल है। जिससे तुम जानते हो, वहीं आत्‍मा है। जिसमें जानने की शक्ति है, वही आत्‍मा है। आकाश कहीं और दूर नहीं है हम समझते हैं आकाश वहां ऊपर है। आकाश ऊपर है तो यहां क्‍या है। तुम कहां हो। जहां तुम हो, वहीं आकाश है। तुम आकाश में ही तो टिके हो। यह पृथ्‍वी भी आकाश में ही तो है। आकाश के बाहर कुछ है क्‍या। शरीर के भीतर आत्‍मा नहीं है, आत्‍मा के भीतर शरीर है। हमारा स्‍थूल शरीर जितना है, उससे दस गुणा अधिक सूक्ष्‍म शरीर है और उससे भी हजार गुणा अधिक है कारण शरीर। कहते है न पांच कोष हैं एक शरीर, फिर प्राणमय कोष, फिर मनोमय कोष। तुम अपने अनुभव से देखो न शरीर और प्राणमय, शरीर की जो प्राण शक्ति है, ऊर्जा है, यह शरीर, सूक्ष्‍म शरीर, स्‍थूल शरीर से भी बड़ा है। मनोमय कोष विचार का जो हमारा शरीर है, वह इससे भी बड़ा, भावनात्‍मक शरीर उससे भी बड़ा है। और आनन्‍दमय कोष जिसको हम कहते हैं, वह अनन्‍त है, व्‍याप्‍त है, सब जगह व्‍याप्‍त। हम जब भी खुश रहते हैं, आनन्‍द में रहते हैं, उस वक्‍त शरीर का कोई भान नहीं रहता।

मत्तो भवति उस उन्‍मत्‍त अवस्‍था को, स्‍तब्‍धो भवति ठहराव, आत्‍मारामोभवति जिसमें हम अपनी ही आत्‍मा में रमण करते हैं। कोई पराया लगे ही नहीं, तब वह आत्‍माराम अवस्‍था है। जैसे यह हाथ इस शरीर से ही जुड़ा हुआ है। इस शरीर का ही अंग है। जैस शरीर के ऊपर कपड़े। इसी तरह सब एक है। जितना सूक्ष्‍म में जाते जाओगे, तुम पाओगे कि यह सब एक ही है। स्‍थूल में पृथक्-पृथक् मालूम पड़ता है, सूक्ष्‍म में जाते-जाते लगता है एक ही है। जैस जो हवा इस शरीर में गई, वही हवा दूसरों के शरीर के भीतर भी गई। हवा को तो हम बॉंट नहीं सकते न। यह मेरा है, यह तेरा यह नहीं कह सकते। तो सूक्ष्‍म में जाते-जाते हम पाते हैं कि एक ही है। आत्‍मारामो भवति। यदि ऐसी बात हो, तो फिर क्‍या करें। फिर मुझे वही चाहिए। मुझे मस्‍त होना है, मुझे आनन्दित अनुभव करना है। अभी ही होना है मुझे यह इच्‍छा उठे, यह कामना उठे भीतर। तब नारद कहते हैं:-

सा न कामयमाना, निरोधरूपत्‍वात्।।

यह इच्‍छा करने वाली बात नहीं है। बैठकर यह न करो मुझे भक्ति दो, मुझे भक्ति दो.......... भक्ति की मांग ऐसी है जैसे मुझे सांस दो, मुझे सांस दो। जिस सांस से तुम बोल रहे हो सांस दो, वहीं तो है। सांस लेकर ही तो तुम कह रहे हो कि मुझे सांस दो। सा न कामयमाना कामना की परिधि से परे है प्रेम। प्रेम की चाह मत करो। निरोध रूपत्‍वात् चाहत के निरोध होते ही प्रेम का उदय होता है। मुझे कुछ नहीं चाहिए या मेरे पास सब कुछ है। इन दोनों अवस्‍था में हम निरोधित हो जाते हैं। मन निरोध में आ जाता है। निरोध माने क्‍या। ‘’मैं कुछ नहीं हूं, मुझे कुछ नहीं चाहिए,’’ या ‘’मैं सब कुछ हूं, मेरे पास सब कुछ है’’। सा न कामयमाना कामना उसी वस्‍तु की होती है जो अपनी नहीं है। अपना हो जाने पर कामना नहीं होती। बाजार में जाते हो कोई अच्‍छा चित्र देखते हो, - तो कहते हो, ‘’यह मुझे चाहिए मगर घर में जो इतने चित्र लगे हुए हैं दीवालों पर, उनपर नजर नहीं जाती। जो अपना है नहीं, उसको चाहते हैं। प्रेम तो आपका स्‍वभाव है, आपका गुण है, आपकी सॉंस हैं, अपका जीवन है, आप हो। उसको चाहने से नहीं मिलेगा। चाहने से उससे दूर जाओगे तुम, इसलिए निरोध रूपत्‍वात्। सा न कामयमाना निरोध रूपत्‍वात् तालाब में लहर है, लहर शान्‍त होते ही तालाब की शुचिता का एहसास होता है। इसी तरह मन की जो इच्‍छाऍं हैं, ये शान्‍त होते ही प्रेम का उदय हो जाता है।

अब निरोध कैसे हो। मन को शान्‍त करें कैसे। तब अगला सूत्र। देखिए इन सूत्रों में यह महत्‍व है कि एक-एक कदम पर एक-एक सूत्र पूर्ण रूप है, अपने आप में पूर्ण है, वहीं पर तुम समाप्‍त कर सकते हो, आगे जाने की कोई जरूरत नहीं। यदि तब भी समझ में न आये तो आगे के सूत्र में उसको और समझा देते हैं।

निरोधस्‍तु लोक वेदव्‍यापारन्‍यास:।।

निरोध किसको रोके। क्‍या रोकना चाहिए जीवन में। तब कहते हैं, लोक वेद व्‍यापार न्‍यास:। बहुत काम में चौबीस घंटे हम फंसे रहें, तब मन में कभी प्रेम का अनुभव, एहसास हो ही नहीं सकता। यह एक तरकीब है। आदमी को प्रेम से बचना हो तो अपने आप को इतना व्‍यस्‍त कर दो कहते है न, सांस लेने की भी फुरसत नहीं फिर मरे हुए के जैसे रहते हैं। सुबह उठने से लेकर रात तक काम में लगे रहो, लगे रहो, लगे रहो जीवन उसी में समाप्‍त हो जाता है। पैसे बनाने की मशीन बन जाओ। सुबह से रात तक पैसे के बारे में सोचते रहो, या कुछ और ऐसे सोचते रहो, काम करते रहो, शान्‍त कभी नहीं होना, तब जीवन में प्रेेम या उससे संबंधित कोई भी चीज की कोई झलक तक नहीं आएगी। या हम काम से तो छुट्टी लेकर बैठ जाते हैं मगर कुछ क्रिया-कलाप शुरू कर देते हैं माला लेकर जपते रहो, या लगातार कुछ क्रिया-काण्‍ड करते चले जाओ, किताबें पढ़ते जाओ, टेलीविजन देखते जाओ, कुछ तो करते जाओ, तब भी परम प्रेम के अनुभव से, अनुभूति से, वंचित रह जाते हो। लोक वेद व्‍यापार न्‍यास:। ठीक ढंग से लौकिक और धार्मिक जो भी तुम करते हो न, ठीक ढंग से इन सबसे विश्राम पाना। तब तुम प्रेम का अनुभव कर सकते हो। जो व्‍यक्ति धर्म के नाम से लगातार कर्मकाण्‍ड में लगा रहता है, उसके चेहरे पर भी प्रेम झलकता नहीं है। आपने गौर किया है। नहीं तो कितने सारे मन्दिर हैं, जगह हैं, जगह-जगह लोग पूजा करते हैं, पाठ करते हैं, इनमें ऐसा प्रेम टपकना चाहिए ऐसा नहीं होता। पूजा करते हैं, इधर घंटी बजाते रहते हैं, उधर एकदम क्रोध-आक्रोश, वेग-उद्वेग इसलिए नए पीढ़ी के लोगों का पूजा-पाठ से विश्‍वास उठ गया क्‍यों। मॉं-बाप को देखा इतना पूजा-पाठ करते हुए, जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आया, जैसे के तैसे ही रहते हैं। पूजा-पाठ में कोई दोष नहीं है, मगर हम बीच में विश्राम लेना भूल गए हैं। हर पूजा-पाठ की प्रक्रिया में यह है कि पहले आचमन करो, फिर प्राणायाम करो, फिर ध्‍यान करो। ध्‍यान की जगह हम एक श्‍लोक पढ़ लेते हैं और मन को शान्‍त होने ही नहीं देते, वेद व्‍यापार में लगे रहते हैं। वेद का भी एक व्‍यापार हो गया। लोक वेद व्‍यापार न्‍यास:। निरोध करना हो तो लौकिक और वैदिक दोनों व्‍यापारों से मन को कुशलतापूर्वक निवृत्‍त करना है। बहुत कुशलता से करना है यह काम। ऐसा नहीं कि पूजा-पाठ सब बेकार है, ऐसा कहकर एक तरफ कर दो इसको, इससे भी नहीं होगा। लोक वेद व्‍यापार न्‍यास: - ढंग से इनसे विश्राम पाना, कुशलतापूर्वक। यह कुशलता क्‍या है, और आगे कैसे चलें, इसके बारे में कल विचार करेंगे।


जय गुरूदेव






प्रेम की अभिव्‍यक्ति

मन की हर चंचलता, भक्ति की तलाश है। भक्ति ही ऐसा ठहराव ला सकती है मन में, चेतना में। और भक्ति प्रेम रूप है। प्रेम जानते हैं, भक्ति को खोजते हैं। प्रेम की पराकाष्‍ठा भक्ति है। और यह भक्ति विश्राम में उपलब्‍ध है, काम में नहीं। नारद कहते हैं:-

निरोधस्‍तु लोक वेद व्‍यापारन्‍यास:।।

सब तरह के काम से विश्राम पाओ। विश्राम में राम है। दुनियादारी के काम छोड़ते हैं, फिर कर्मकाण्‍ड में उलझ जाते हैं। कई बार ऐसा होता है आप कर्मकाण्‍ड तो करते हैं, पर मन उसमें लगता ही नहीं है। और सोचते रहते हैं कब यह खत्‍म होगा। हाथ में माला फेर रहे हैं - - ‘’कब इसको खत्‍म करें, कब उठें’’ इस भाव से करते हैं। मन्दिर जाते हैं, तीर्थस्‍थानों पर जाते हैं, किसी भय से या लालसा से। भय से पूजा-पाठ करते हैं किसी ने डरा दिया तो ऐसा हो जाएगा मंगल का या शनि का दोष हो जाएगा, कुछ बुरा हो जाएगा, धन्‍धा नहीं चलेगा। आप हनुमानजी के मंदिर मे चक्‍कर लगाने लगते हैं, इसलिए नहीं कि हनुमानजी से इतना प्रेम हो गया दृष्टि तो धन्‍धे पर अटकी हुई है और दुकान को लेकर ही मंदिर जाते हैं। घर की समस्‍याओं को लेकर मंदिर जाते हैं और लेकर ही वापस आते हैं। छोड़कर भी वापस नहीं आते। छोड़े कैसे। प्रेम हो तभी न छोड़ें। भय से, या लोभ्‍ं से, हम पूजा-पाठ करते हैं, कर्मकाण्‍ड में उलझते हैं। यह तो भक्ति नहीं हुई, यह तो प्रेम नहीं हुआ। आदमी थक जाता है। तथाकथित धार्मिक लोगों के चेहरे को देखिए थके-हारे, उत्‍साह नहीं है, दु:ख से भरे हुए हैं। भगवान आनन्‍द स्‍वरूप है, सच्चिदानन्‍द, उसकी एक झलक नहीं होनी चाहिए क्‍या। उसके साथ जुड़ जाने से अपने भीतर उस गुण का प्रकाश होना है कि नहीं होना है। यह स्‍वाभाविक है। मगर हम धर्म के नाम से बड़े उदास चेहरे दिखाते हैं।

दुनिया दु:ख रूप है, मगर तुम भी दु:ख रूप हो जाते हो और इसका समझते हो धर्म। यह गलत धारणा है। विश्राम पाओ। भक्‍त वहीं है जो यह नहीं सोचता कल मेरा क्‍या होगा। अरे, जब मालिक अपने हैं तो कल की क्‍या बात है। जब मालिक हमारा है तो तिजोरी की क्‍या बात है।

अगला सूत्र -

तस्मिन्‍ननन्‍यता तद्विरोधिषूदासीनता च।।

तस्मिन् अनन्‍यता। उसमें अनन्‍यता। वह अलग, मैं अलग इस तरह से सोचने से प्रेम हो नहीं सकता। यह हो ही नहीं सकता। तस्मिन् अनन्‍यता। वह मुझसे अलग नहीं है।

जैसे आपके बच्‍चों को कोई डांट दे तो आप उसको डांटने लगते हैं। आपकों तो डांट नहीं पड़ी। किसी ने आपके बच्‍चों के साथ ठीक व्‍यवहार नहीं किया हो, तो आप उस बात को अपने ऊपर ले लेते हैं। क्‍यों। मैं और मेरा बच्‍चा कोई अलग थोड़े ही हैं। जिससे प्रेम हो जाता है उससे भेद भी कट जाता है। प्रेम हुआ माने भेद मिटा और जब तक भेद नहीं मिटता तब तक प्रेम होता ही नहीं है। अपनापन हो, आत्‍मीयता हो, इतनी आत्‍मीयता हो, तब ही मन ठहरता है। हम जो पसन्‍द कर लेते हैं तब फिर मन भटकता नहीं है। जब टेलीफोन के सामन बहुत देर तक बैठते हैं तो उसमें तल्‍लीन हो जाते हैं। अकेले बैठकर थोड़ी देर ध्‍यान में बैठो तो यहां दर्द, वहां दर्द, उधर वैचेनी, मन दुनिया भर में भागता है। क्‍यों। सारी दुनिया दिमाग में आ जाती है जब ध्‍यान में बैठो। क्‍यों। हमने पसन्‍द नहीं किया, प्रेम नहीं किया, अपने आप से प्रेम नहीं किया। जब खुद से, नफरत से भर जाते हैं तो खुद के प्रति भी और औरों के प्रति भी नफरत ही करते हैं। खुद के साथ जब प्रेम होता है, औरों के साथ भी प्रेम होता है। खुद के साथ प्रेम हो कैसे, जब खुद में इतना दोष दिखता है। तब उस दोष को समर्पण कर दो। समर्पित होने पर अनन्‍यता होती है। अनन्‍य होने पर समर्पित हो जाते हैं। यह एक-दूसरे से मिले हुए हैं।

तस्मिन् अनन्‍यता तद्विरोध। उदासीनता। उसके विरोध में कुछ भी हो, उसके प्रति उदासीन हो जाओ। अधिक ध्‍यान नहीं देना। कर्मकाण्‍ड में नेम-निष्‍ठा बहुत है, प्रेम में कोई नियम नहीं।

अन्‍याश्रयाणाम् त्‍यागो अनन्‍यता।।

जीवन में प्रेम बढ़े, उसके लिए अनन्यभाव की आवश्यकता है। अपनापन महसूस करना। चाहे दूसरे करेंया न करें, अपनी तरफ से उनको अपना मान लिया। जब संशय करते हैं कि दूसरे व्यक्ति हमसे प्रेमकरते हैं कि नहीं, तब खुद का प्रेम भी कुंठित हो जाता है। हम भी प्रेम हीं कर पाते|