दिनांक १०/१२/२००१
पुराने पुल कि दास्ताँ
जब जन्म हुआ था मेरा,
बड़ा दुखी था मैं !
दुखी हों भी तो क्यों ना हूँ ?
सम्पति अपना, नाम किसी का |
देश है अपना राज किसी का |
हुआ था विकल बड़ा मैं ,
आत्महत्या चाहता था मैं,
ऐसा चाहूँ भी तो क्यों नो चाहूँ ?
स्वर्ण-खग को दीन बना दिया |
व्यापर के पीछे बंदी बना लिया |
'५७' कि क्रांति का अभिलाषी था मैं,
गर्जना सिंह कि चाहता था मैं,
ऐसा हो भी तो क्यों ना हो ?
जब पशु विरोध करते दासता का,
तो मानव कैसे सहे गुलामी |
आखिर बना आजाद हिंद फौज
'४२' कि क्रांति ने हुंकार भरी
खुश हो भी तो क्यों ना हूँ !
२०० साल बाद टूटी जंजीरें,
सपना साकार हुआ अपना |
स्वप्न टुटा शीघ्र ही ,
पाक-भूमि बना स्वार्थ से,
आश्चर्य हो भी तो क्यों ना हो ?
युद्ध जीतकर भी हारे,
बापू को गोली से मारे |
दसक रोने में बिताया,
भावी कल्पना से कापां !
डर हो भी तो क्यों ना हो ?
प्रभात-सूर्य को राहू ने ग्रसा
अमृत-घट में विषधर पाया |
आगे भी कुछ ऐसा ही देखा
विश्वास-घाती मित्रों को भी देखा |
कलपुं तो क्यों ना कलपुं ?
शांति-जननी को आग में पाया
टूटते अपने आश्तीत्व को पाया |
आया वर्तमान में एक आशा से
अमावस में पूनम कि आशा से
आशा रखूं भी तो क्यों ना रखूं ?
जीवन के लिए सांस चाहिए
साथ में आश भी तो चाहिए |
पाश्चात्य में रमते लोगों से
सेवा में मेवा खाते लोगों से
कहूँ भी तो क्यों ना कहूँ ?
बताऊँ पहचान में उनकी
याद दिलाऊँ बीते युगों की |
माना की मैं एक पुल पुराना हूँ |
कबाड़ी में फेंका जाने वाला हूँ |
पर बोलूं तो क्यों ना बोलूं ?
क्योंकि मैं केवल पुल ही नहीं,
बल्कि शताब्दी की दास्ताँ हूँ |
ये यमुना के बहते पानी ,
गिरते आंसू हैं मेरे
जिसे गिराऊँ तो क्यों न गिराऊँ ?
ये श्रधांजलि है मेरी उनके प्रति
जिन्होंने प्राण दिए देश के प्रति |
||समाप्त ||
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