Sunday, December 13, 2015

विद्रोही

स्व. रमाशंकर यादव 'विद्रोही' को समर्पित, जिनका देहान्त विगत ०८.१२.२०१५ को हुआ |




विद्रोही


विद्रोही एक स्वर है जो
विद्रोह करेगा ही हर उस शख्स के लिए
जो अंतिम पायदाने पर है, या
जिसकी आवाज बस हलक में रह जाती है|

वो झिकझोरेगा हर उस शख़सियत को
जो सिर्फ चैन से सोना चाहता है
वो बुलंद करता रहेगा आवाज 
उन बहरों के कान में धमाके करने के लिए|

आज वो विद्रोही खामोश हो गया है सदा के लिए
पर विधाता...विद्रोही एक चेतना है....जो अजर है
अगर उसकी आवाज विद्रोही थी.........तो
उसकी ख़ामोशी भी बड़ी विद्रोही है |

और वो छोड़ गया है स्वर.........विद्रोह का
लेखनी जो उतार गया है नसों-२ में
और चिंगारी जो बढती ही जा रही है
झरिया के खानों की तरह अन्दर ही अन्दर|
- पथिक (१३.१२.२०१५) 

Tuesday, August 25, 2015

रोटी और शांति

रोटी और शांति

एक दिन तो आएगा,
जब किसान बोयेगा सिर्फ अपने लिए
और सिर्फ अपने बच्चों के लिए|...

और उस दिन
हर कोई किसान होगा,
छोडकर दलाली, ठेकेदारी, उपदेश
क्योंकि अब सबको चाहिए रोटी,
जो उन्हें खुद बोनी है अपने पसीने से
और उस दिन होगी शांति
और बंदूके हो जायेगी खामोश
दुरी नहीं रहेगी इंसानों में,
क्योंकि तब सबका पसीना बहेगा
खेतों में और सभी को पता होगा
दर्द दुसरे कन्धों का
और मतलब चूल्हा बंद होने का |
पर मुझे डर है की
इससे पहले होगा एक रक्तपात .....
सत्ता के लिए नहीं, रोटी के लिए
और रोटी उगाने वालों से
रोटी छिना जायेगा बन्दुक के दम पर|
धीरे-२ रोटी बनाने वाले बन्दुक पकड़ेंगे
और भूलते जायेंगे रोटी बनाना
परिणाम होगा सिर्फ रक्तपात सिर्फ रक्तपात
इतना की इन्सान और जानवर में भेद मिट जायेगा
और तब होगी शांति हमेशा के लिए |
पर क्या भगवान तब तक इन्सान बनाता रहेगा ?
 
 
- पथिक (२४.०८.२०१५)

Thursday, August 20, 2015

मुहब्बत की सच्ची इबारत

मुहब्बत तो मुहब्बत ही होती है लेकिन
फिर भी फर्क है जमीं - आसमां का ...

एक बादशाह के मुहब्बत में
और एक आदमी के मुहब्बत में |

 
भले ही एक सातवाँ अजूबा हो,
पर दूसरा तो मिसाल है कि
आसमां को जमीं पर लाया जा सकता है,
बशर्ते लाने वाला होना चाहिए |

 
मुमताज को भी जलन होगी ,
फाल्गुनी बनने की,
जिसकी याद के आसुओं से
दशरथ ने पहाड़ तक को काट दिया |

 
ये इबारत है इन्सान की फौलादी इक्षाशक्ति की
जिसने पहाड़ को झुकना सिखा दिया
ये इबारत है मुहब्बत की जो कहीं बेहतर है
लैला-मजनूँ और हीर -रांझो की कहानियों से |
 
- पथिक (१९.०८.२०१५)

Sunday, July 26, 2015

सत्ता का खेल - २६.०७.२०१५

 
 
 

सत्ता का खेल  

 
जख्मों को हरा रहने दो,
थोड़ा नासूर और बनने दो
सियासत बनी रहे बदस्तूर,
बस इसका ख्याल रहने दो
...
इस पार हो या सीमा पार,
तल्ख़ मौहाल को रहने दो
रोटी छिनकर अभागों से
बुझती राखों में आग भरने दो
 
हर तरफ रंग-ए-मजहब
का शोर बढ़ते रहने दो
इन फरेबों की खातिर
लाशों को गिरते रहने दो
 
आवाजें आएंगी ठहरने की
इस पार भी उस पार भी
उसे अनसुना कर
खेल को बदस्तूर चलने दो

Saturday, July 25, 2015

आज का मुक्तक २५.०७.२०१५

शहीद चंद्रशेखर आजाद की याद में आज का मुक्तक ,
 
 
काबिल नहीं हैं ये सियार और गीदड़
कि नमन कर सके उन शेरों को,
जिन्होंने बलिदान दिया सिर्फ इसलिए ...

कि स्वराज होगा, कोई गुलाम नहीं होगा
और कोई कत्लखाना नहीं होगा यहाँ
पर अब हर कोई गुलाम है किसी और गुलाम का
स्वराज के नाम पर पार्टी-तंत्र और कॉरपोरेट-तंत्र
और अफ़सोस है कि ये सियार और गीदड़
खा रहे नोच-२ कर लाश ........हाँ जिन्दा लाश को
कि कत्लखाना ही तो है यहाँ हर जगह...हर जगह |

Saturday, July 11, 2015

आज का मुक्तक १०.०७.२०१५

जिन सीनों में कुछ राज दफ़न हों
उन सांसों को खामोश कर दो ,
मगर क्या करें उन आँखों को ,
जो मरने पर भी राज उगल देती है |

Friday, July 10, 2015

आज का मुक्तक १०.०७.२०१५

जो आँखे है दफ़न मगरूर रंगीन चश्मों से,
उन्हें क्या खाक दिखेगा रंग सच्चाई का

आज का मुक्तक ०९.०७.२०१५

वक़्त आखिर तू नाकाफी ही रहा
वक्त के लिए मुझे तैयार करने में

Tuesday, July 7, 2015

सरकार

सरकार

 
हर बार आती एक सरकार,
ना तेरी ना मेरी सरकार,
सरकार तो होती है बस,
सरकार की सरकार |
 
हर दल की है सरकार,
हर टोपी की है सरकार,
बस गुमनाम है उसमे,
हमारे सरोकार की सरकार |
 
हर शोर की सरकार,
हर कौम की सरकार,
बस खौफ में है,
आम आवाज सरकार |

Friday, June 26, 2015

आज का मुक्तक (२६.०६.२०१५)

 
भले ही था एक बूंद प्यार का मेरे पास,
पर कतरा-२ उस बूंद का अर्पण था तुझे,
पर पता नहीं, कैसे प्यासे रह गए तुम,
उससे जो मधुशाला की प्यास बुझा गया|
 
- पथिक (२६.०६.२०१५)

Friday, May 29, 2015

आज का मुक्तक (२९.०५.२०१५)

जिन्दगी का एतबार मत करना, 
मौत का इंतजार मत करना | 
किसी गफलत में मत रहना यारों,
स्वर्ग-नर्क यहीं हैं, कसूरवार मत बनना|


- पथिक (२९.०५.२०१५)

Monday, May 18, 2015

"बेबस"

इस हफ्ते चार मित्रों का प्रेम-विवाह यथासंभव कोशिश के बाबजूद टूटता देखकर मूड ख़राब हो गया है| हम लोग जरुर उस समाज का निर्माण कर पाएंगे जहाँ............हम अपने बच्चों की ख़ुशी महज परंपरा और समाज के नाम पर बलि नहीं होने देंगे|  जो कष्ट हमारे इन मित्रों को हो रहा है.............वो अगली पीढ़ी को नहीं होने देंगे|
दिलजले दोस्तों के दर्द के नाम चंद पंक्तियाँ :-

"बेबस"




क्या फोड़ दूँ इन नयनों को ,
जिसने ये नामुमकिन सपने देखें ,
या फिर कोसूं अपने मोह को ,
जो भूलता नहीं अपने को |


या आग लगा दूँ इस दुनिया को 
इस समाज को, इस मज़बूरी को 
या तोड़ दूँ सब माया-मोह के बंधन,
एक नए माया-मोह के लिए |


शर्म आती है अपनी कायरता पर,
और अपनी भगोड़ेपन पर | 
और शर्म आती है अपनी औकात पर 
जो अपने औकात से बढ़के बात करता था|


हाय विधाता मेरी किस्मत क्या लिखी 
मैंने रुक्मणी मांगी थी, राधा नहीं |
किसी का हाथ अपने हाथ माँगा था , 
पर अपनों का हाथ भी सर पर माँगा था |


- सत्येन्द्र कुमार मिश्र "पथिक" (१८.०५.२०१५)


इमेज के लिए साभार गूगल

Thursday, April 23, 2015

आज का मुक्तक (२३ .०४.२०१५)

आ.आ.पा. की रैली में हुई घटना पर -

लाशों और आहों पर चढ़कर,
तमाम रोटियों सेक लो तुम सत्ता की,
और जश्न मना लो तुम कुर्सी का,
मगर याद रखना  कि ,
हर लाश कब्र खोदती है
जिसमे दफ़न होगी तुम्हारी तमाम खुशियाँ

- पथिक 

Monday, April 20, 2015

अंशु सचदेवा को श्रधांजलि और  तमाम जुगनुओं को समर्पित कुछ पंक्तिया


जुगनू



अमावस्या से लडती एक जुगनू,
जो उम्मीद है हर कोने की,
कि वो कोना भी रौशन होगा ,
भले ही पल दो पल के लिए |

आज वो जुगनू हार गयी है,
अपनी ही अमावस्या से ,
और भूल चुकी अपने अन्दर के जुगनू  को
और उन तमाम कोनो के विश्वास को |

या फिर मान बैठी है कि
उसकी ये जुगनू की छोटी  रौशनी ,
नाकाफी है अपनी अमावस्या के लिए,
और हर कोने तक पहुचने के लिए |

इसलिए गयी है सूरज को लाने,
या फिर पूनम की चंदा को,
ताकि फिर किसी जुगनू को,
हारना ना पड़े अपनी अमावस्या से |

लेकिन वो जुगनू भूल गयी कि ,
सूरज भी कभी एक चिंगारी ही रहा होगा,
और पूनम भी कभी अमावस्या ही रही होगी ,
लेकिन जुगनू, जुगनी ही रही होगी |

एक आशा की जुगनू , 
जो याद दिलाती है दूसरी जुगनू को,
कि तुम्हे चमकना ही होगा तब तक,
जब तक भोर ना होगी............भोर ना होगी |   

                                             - सत्येन्द्र कुमार मिश्र 'पथिक' 







Friday, February 20, 2015

"Development should be felt by people not marketed by government or corporates."

"Development should be felt by people not marketed by government or corporates."

I personally praised Greenpeace India for their awareness about environment but we all know that development itself comes on a cost. No one want each project will scrapped just because of Q raised by a NGO. Also Government should also took initiatives for check balance between these development and vital environmental and social cost .
I personally disagree with government decision on nuclear liability bill, where foreign suppliers of equipment for the nuclear reactors cannot be sued by the victims in case of a mishap.
Bhopal Gas Tragedy and fukushima incident were eye opener. Development can't be measured by corporate benefits and status of share market. "Development should be felt by people not marketed by government or corporates."