Wednesday, November 11, 2009

व्यथा एक सूरदास की

मैंने  अपनी भावनाओं को जब-तब कुछ शब्दों के रूप में अपनी नोट-बुक में सहेज कर रखा था, जिसे में आज से शीर्षक खंड " मेरी कवितायेँ " के अर्न्तगत इस ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूँ| आपसब से निरंतर आशीर्वाद चाहूँगा| धन्यवाद|


मैंने अपनी पहली कविता इस कल्पना  से प्रेरित होकर लिखी थी की यदि ये आँखे जिनसे मैं ये सुन्दर संसार देख रहा  हूँ, नहीं होती तो मैं क्या और किसतरह सोचता| तो आपके सामने मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ  दिनांक १४/११/2001 को लिखी शीर्षक कविता "व्यथा एक सूरदास की"|



दिनांक १४/११/2001
व्यथा एक सूरदास की

शुभ्र नयनों के रौशन हीरों,
तेरी ज्योति गई कहाँ ?
नयन तेरी ही व्यथा कहते,
तिरस्कृत किया संसार मुझे|

सरोवर में खिलनेवाले  कमल,
जाने क्यों मुरझा गए!
इस सुने सरोवर में
नहीं झांकता अब कोई!

भवंर में फसा हूँ मैं,
क्या पार होगा सागर ?
बिन पतवार के नैया 
टीस ही तो बढाती है|

ये कैसी सुबह 
जिसका प्रारंभ नहीं,
और ये कैसी रात
जिसका अंत नहीं|

आधार रखकर भी सहारा लूँ|
कर होकर भी भिखारी हूँ|
जबान रखकर भी बेजुबान हूँ|
मेरी व्यथा न जाने कोई!

जन्मदाता ने तिरिस्कार किया,
औरों का क्या कहना|
इतनी निष्ठुरता मेरे प्रति,
प्रेम की एक बूंद कहाँ|

दीनता की चादर ओढे,
पशुओं के संग रात गुजारूं|
अँधेरे संसार का बाशिंदा,
ठिकाना कहीं  नहीं है मेरा|

नहीं चाहिए
ऐसा जीवन,
इससे अच्छा
पशु जीवन|

जैसे नष्ट किया जाता
बेकार कृत्यों को,
वैसे ही मुक्त करो 
मेरे भी जीवन को|

उस पशु को दिया 
इतना अल्प जीवन,
मिला मुझे शतायु वर,
जो शाप ही है मेरे लिए|

कहीं ऐसा न हो की 
तेरी निष्ठुरता 
मुझे पागल कर दे
और  मैं हैवान बन जाऊं|


हो सकता है की 
मानवता भागे मुझसे,
प्रेम का  तरसा मैं 
दूसरो को तरसाऊँ|

कहलाऊँ मैं अपराधी 
पर क्या मैं दोषी ?
मैं बनू दंड का भागी,
पर क्या होगा ये न्याय !

इतना होने पर भी,
हे प्रभु! मैं आभारी,
याद आया गीता-दर्शन,
अच्छा करता तू हमेशा.

मानव को पशु बनते 
तो नहीं देख रहा,
जननी का अपमान होते 
तो नहीं देख रहा|

ऐसे इस तपन का
आभाष पाऊँ मैं !
फिर भी यह पीड़ा
साक्षात् से तो कम होगी|

धृतराष्ट्र  नहीं  मैं
सूरदास हूँ मैं|
गाकर कोमल ह्रदय में 
फूल खिलाता हूँ मैं|

हो सकता है की 
तम में दुबे रहे पट !
पर मन मैं बसे 
रब को जान गया हूँ अब|



बाधाएं परीक्षा लेती ही हैं|
ग्रहण भी लगता ही है|
पर यह भी है सही,
रात्रि पश्चात् सुबह है ही|

कायर ही तलाशते बहाने,
दोष देते इश्वर को|
भाग्य का रोना रो-रो कर,
छिपाते फिरे अपनी आलस्यता|

जब अंग-भंग नेल्सन 
लड़ सकता नेपोलियन से,
तो मैं क्या नहीं 
लड़ सकता तक़दीर से|

दोष किसमें नहीं होता!
चाँद भी तो है दागदार!
वह रोशन करती निशा को,
मैं भी तो कर सकता हूँ ऐसा|

असफलता से प्रारंभ होती है|
पर सफलता तो मिलती है|
डगमगाते पाऊँ थमते भी हैं|
भीषण तूफान भी थमता है|

जग रहा हूँ मैं,
इस भोर के साथ,
एक नए रूप मैं,
व एक नयी आशा से|

 
|| समाप्त ||


2 comments:

  1. बहुत सुन्दर कविता। मिश्र जी आप इन्हे पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाते है या नही

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  2. Thank you for your feedback. Sir i am not published this poem yet because i feel that now no body times to read poem and some who do this they have also ego problem.

    So my poem is for myself. But now i am share this to you through e-means.

    I am publish more on this blog in near future.

    ReplyDelete

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