Tuesday, November 24, 2009

पुराने पुल कि दास्ताँ

प्रस्तुत शीर्षक कविता "पुराने पुल कि दास्ताँ " वास्तव में एक दर्द है लोहे वाले उस पुराने पुल का जो एक शताब्दी से ऊपर से दिल्ली के उतार-चढाव का गवाह है | सलीमगढ़ और पुस्ते के बीच बने उस पुल को जब भी मैं निहारता हूँ न जाने मेरी आँखे क्यों भर जाती है | शायद इस कविता को पढने के बाद आप भी उस दर्द को महसूस कर पायें, यदि ऐसा हो पाया तो इसे मैं अपना सौभाग्य समझूँगा |

दिनांक १०/१२/२००१ 
2003


पुराने पुल कि दास्ताँ

१८८०


जब जन्म हुआ था मेरा,
बड़ा दुखी था मैं !
दुखी हों भी तो क्यों ना हूँ ?

सम्पति अपना, नाम किसी का |
देश है अपना राज किसी का |




हुआ था विकल बड़ा मैं ,
आत्महत्या चाहता था मैं,
ऐसा चाहूँ भी तो क्यों नो चाहूँ ?

स्वर्ण-खग को दीन बना दिया |
व्यापर के पीछे बंदी बना लिया |

'५७' कि क्रांति का अभिलाषी था मैं,
गर्जना सिंह कि चाहता था मैं,
ऐसा हो भी तो क्यों ना हो ?

जब पशु विरोध करते दासता का,
तो मानव कैसे सहे गुलामी |


 

आखिर बना आजाद हिंद फौज
'४२' कि क्रांति ने हुंकार भरी
खुश हो भी तो क्यों ना हूँ !




२०० साल बाद टूटी जंजीरें,
सपना साकार हुआ अपना |

स्वप्न टुटा शीघ्र ही ,
पाक-भूमि बना स्वार्थ से,
आश्चर्य हो भी तो क्यों ना हो ?

युद्ध जीतकर भी हारे,
बापू को गोली से मारे |




दसक रोने में बिताया,
भावी कल्पना से कापां !
डर हो भी तो क्यों ना हो ?

प्रभात-सूर्य को राहू ने ग्रसा
अमृत-घट में विषधर पाया |

आगे भी कुछ ऐसा ही देखा
विश्वास-घाती मित्रों को भी देखा |
कलपुं तो क्यों ना कलपुं ?




शांति-जननी को आग में पाया
टूटते अपने आश्तीत्व को पाया |

आया वर्तमान में एक आशा से
अमावस में पूनम कि आशा से
आशा रखूं भी तो क्यों ना रखूं ?

जीवन के लिए सांस चाहिए
साथ में आश भी तो चाहिए |

पाश्चात्य में रमते लोगों से
सेवा में मेवा खाते लोगों से
कहूँ भी तो क्यों ना कहूँ ?




बताऊँ पहचान में उनकी
याद दिलाऊँ बीते युगों की |

माना की मैं एक पुल पुराना हूँ |
कबाड़ी में फेंका जाने वाला हूँ |
पर बोलूं तो क्यों ना बोलूं ?

क्योंकि मैं केवल पुल ही नहीं,
बल्कि शताब्दी की दास्ताँ हूँ |

ये यमुना के बहते पानी ,
गिरते आंसू  हैं मेरे
जिसे गिराऊँ तो क्यों न गिराऊँ ?




ये श्रधांजलि है मेरी उनके प्रति
जिन्होंने प्राण दिए देश के प्रति |

||समाप्त ||

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