Tuesday, November 24, 2009

संध्या

मेरी पहली कविता की सराहना के लिए आप सब का धन्यवाद | जैसा की मैंने पहले कहा था की इन टूटी-फूटी पंक्तियों को मैं कविता नहीं कहना चाहूँगा क्योंकि कविता मैं भाव-पक्ष के साथ-साथ कला-पक्ष का भी होना नितांत आवश्यक है, जिसकी काफी कमी आप महसूस करेंगे | यही वजह है की इन्हें मैंने कहीं प्रकाशित नहीं करवाया | इसे इस ब्लॉग पर डालने का मेरा मूल उद्देश्य यही है की मेरे साथी मेरे सभी पक्षों के बारे में अवगत हो सके |

तो आज इसी कड़ी में प्रस्तुत है आप सब के समक्ष शीर्षक कविता "संध्या" | जो दिनांक २८/११/२००१ को संध्या के समय मेरी भावनाओं का अक्षर रूप है |

संध्या





यमुना के आगोश में सूर्य,
शीतल हो खिल उठा |
संगीत छोड़ते खग,
संध्या के मंडप में|






चकोर को मिली चाँदनी, 
साथ में बारात सितारों की| 
व विदाय लेता रवि उनसे, 
संध्या की डोली में |




बसेरे पे लौटते दम्पति खग,
घर को लौटते हम,
शांत होता कोलाहल,
संध्या की बेला में |







मिलन का सन्देश लाती संध्या, 
ताज को चार चाँद लगाती संध्या, 
चिंता के कशमकश से मुक्त संध्या, 
प्रकृति का अनुपम क्षण संध्या |





||  समाप्त  ||





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